Thursday, December 2, 2010

दशकों के ये सारे जागी
पत्रकारिता पर वारे रागी
दिखने लगे प्यारे दागी
दुबक गए हारे बागी

सवाल जद और हद का

मेहनत से पाया पद
अहंकार से आया मद
मनमर्जी से हो गया बद
खुदगर्जी से गंवाया कद
दिन गए लद-पिटती भद
जिंदगी का दांव-चारों तरफ कांव-कांव-नसीब नहीं रही गांव की छांव
जमाना तीन का-दौलत, शोहरत, औरत

तत

ऐसी बुरी लागी लत
पत्रकारिता में गए रत
शब्दों ने बिगाड़ी गत

झूटी दिखतीं सारी बत.
..अपनों के बदले मत
कोई नहीं लिखता खत

घूरती रहती है छत
अब तो रखो काज की लाज वरना ऐसी गिरेगी गाज-ढूंढते रह जाओगे राज-ताज-साज-नाज.

Monday, November 29, 2010

मोबाइल की विल- मत किसी से मिल- सचाई किल

लाता मोबाइल
आता बिल
खाता निल
जाता हिल
गाता दिल।

है कोई माई का लाल-जिसके पास मोबाइल हो और उसने झूठ ना बोला हो। नहीं ना। यही कड़वा सच है- गांधी के देश में इस मशीन की आंधी। हर कोई झूठा-सब कुछ लूटा।

विधायक की कमाई ३३००० गुना बढ़ी

बिहार तरक्की की राह पर है, सारी दुनिया जान चुकी है। जनता तरक्की करेगी इसके भी आसार नजर आ रहे हैं पर तमाम विधायक जरूर पांच साल में हैरतअंगेज तरक्की कर चुके हैं खासकर कमाई में। शपथपत्रों के आधार पर नेशनल इलेक्शन वाच और एडीआर ने जो रिपोर्ट तैयार की है उसके मुताबिक 2005 में विधायक की औसत संपत्ति जहां 29.53 लाख थी वहीं इस बार वो बढ़कर 75.35 लाख हो गई है। यानि बिहार विधानसभा अमीरों से भरी नजर आएगी। सबसे ज्यादा कमाई के प्रतिशत का रिकार्ड तोड़ा है जदयू के विधायक रमेश रिषिदेव ने जो 15 विधायकों में 33039 फीसदी के साथ चोटी पर हैं। 15 की इस सूची में चार भाजपा के, एक कांग्रेसी, एक राजद और बाकी 9 नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के हैं। कौशल यादव, ललित यादव, पूर्णिमा यादव की संपत्ति में 2 करोड़ रुपये से ज्यादा की वृद्धि हुई है जबकि रेणू देवी, सुरेन्द्र यादव, श्रवण कुमार, संजय सरावगी, वृषिण पटेल, डा. रणविजय कुमार आदि की संपत्ति में 1 करोड़ रुपये मूल्य से ज्यादा का इजाफा हुआ है.

सबसे ज्यादा प्रतिशत में कमाने वाले15 विधायक ये हैं
विधायक पार्टी प्रतिशत 2005 2010
रमेश रिषिदेव जदयू ३३०३९ 6778 22,46,137
मनोज सिंह जदयू 29274 13924 40, 90000
रामायण मांझी भाजपा 14347 18890 27,29,038
व्यासदेव प्रसाद भाजपा 5363 30000 16,38,900
ललित यादव राजद 4247 5,60,757 2,43,78,886
मोहम्मद तौसीफ कांग्रेस 2754 115446 3294369
गुड्डी देवी जदयू 2098 ३११५०० 6846846
दामोदर सिंह जदयू 1876 290381 5736874
के के रिषि भाजपा 1788 165000 3115043
बीमा भारती जदयू 1663 286000 5043059
वी पटेल मंत्री जदयू 1427 16085546 17212583
नरेंद्र यादव जदयू 1153 312522 3914765
अनंत कुमार जदयू १०४२ 340000 3884241
हरिप्रसाद साह जदयू 906 190570 1916309
सतीश चंद्र दुबे भाजपा ८१२ २०७००० 1888014
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फिर से चुने गए विधायकों में राजद के अब्दुल बारी सिद्दीकी (226 फीसदी ) भी करोड़पति हो गए हैं। जदयू के श्याम रजक (166), सुनील कुमार (69), श्रवण कुमार (454), उदयनारायण चौधरी (301), श्याम बहादुर सिंह (434), नीतीश मिश्रा (253),रामेश्वर पासवान (169), पूर्णिमा यादव (698), रेणु कुमारी (269), शाहिद अली (53),शिवाजी राम (93) श्ैलेश कुमार (66),राजेश सिंह (219), राजू कुमार सिंह (6), रमई राम (16), पन्नालाल पटेल (599), प्रदीप कुमार (275), पूनम देवी (110), सुनील पांडेय (666), नीरज कुमार सिंह (230),ज्ञानेंद्र कुमार सिंह (283),इजहार अहमद (219), मनोरंज सिंह (81), जयकुमार सिंह (239),जीतन राम मांझी (626), जितेंद्र कुमार (258), कौशल यादव (496) सबसे ज्यादा दो करोड़। जनार्दन मांझी (364 ) बिजेंद्र प्रासद यादव (340), डा अनिल कुमार (284), डा रनविजय कुमार (478) गौतम सिंह (187), छेदी पासवान (144),छोटेलाल राय (184),दामोदर रावत (346), दिनेश प्रसाद(62),अजय कुमार मंडल (95),अजीत कुमार (285),अनंत कुमार सत्यार्थी (325),अनिरूद्ध प्रसाद (342) राजद के सुरेंद्र प्रसाद यादव (156), अख्तरुल इमान (125), केदार नाथ सिंह (5) भाजपा के अमरेंद्र प्रताप (223),अनिल कुमार (305), आशा देवी (139),अशोक कुमार (261), भगीरथी देवी (82), बी सी चौधरी (377), ब्रिज किशोर विंद (624), डा अच्युतानंद (204), ज्ञानचंद मांझी (323), मुन्नी देवी (107), नंद किशोर यादव (71), नित्यानंद राय (73),प्रेम कुमार (119), राजकिशोर केसरी (435), रामदेव महतो (55)रामप्रवेश राय (48), रामाधार सिंह (147), रामेश्वर प्रसाद (269), रेणू देवी (413), संजय स्वर्गी (169), सत्यदेव नारायण आर्य (331), सुनील कुमार पिंटू (90),विनोद नारायण झा (200) की कमाई का प्रतिशत ठीक ही रहा। जदयू के हरिनारायण राय व जगमातो देवी जैसे थे ऐसे ही रहे हां श्याम बिहारी प्रसाद 16 ,एस जी यादव 40 फीसदी लुटा बैठे। भाजपा के अरुण सिन्हा, दिनाकर राम घट गए। जवाहर प्रसाद भी जैसे थे वैसे ही हैं। ढेरों पुराने विधायक भी ऐसे रहे जिनकी संपत्ति में तो अच्छी खासी बढ़ोत्तरी हुई पर वे सीट नहीं बचा पाए।

जदयू जवान और पढ़े-लिखों की पार्टी
बिहार विधानसभा में भले ही पिछली बार की बनिस्पत 24 ज्यादा दागी इस बार आ गए हों यानि अब 141 हैं पर इसमें कोई दो राय नहीं कि इस बार कहीं ज्यादा जवान और पढ़ा-लिखा सदन नजर आएगा। जदयू सबसे जवान पार्टी नजर आएगी। साथ ही पढ़ाई लिखाई में भी वो आगे रही। उम्र के आंकड़े बड़े दिलचस्प हैं। 25 से 30 के बीच 6, 31 से 40 के बीच 60, 41 से 50 के बीच सबसे ज्यादा 87, 51 से 60 के बीच 56, 61 से 70 के बीच 29 और 71 से 80 की उम्र के 3 विधायक इस बार सदन में नजर आएंगे। जदयू सबसे जवान है। जदयू के 25-35 के 15, 36 से 45 के 42, 46 से 55 के 32, 56 से 65 के 18, 66 से 75 के 6 और 76 से ऊपर एक विधायक पार्टी का चुना गया है। इसी तरह क्रमानुसार भाजपा के 6, 29, 35, 14,6 विधायक हैं। राजद के सारे ही विधायक 65 से नीचे के हैं। कांग्रेसी भी जवान हैं। पढ़ाई के मामले में इस बार बिहार लकी रहा है। 6 ने पढ़ाई का ब्यौरा नहीं दिया है। दस अनपढ़ (भाजपा 4, जदयू 6) हैं। 4 पांचवी पास, 7 आठवीं पास, 28 दसवीं पास, 47 12 वीं पास, 57 स्नातक, 19 स्नातक प्रोफेशनल कोर्स, 42 स्नातकोत्तर और 21 डाक्टरेट की डिग्री हासिल किए हुए हैं। जदयू में 10 और भाजपा में 6 डाक्टरेट किए हुए हैं। सबसे ज्यादा 19 स्नातकोत्तर भी जदयू के पास, भाजपा के पास 17 हैं। जदयू में स्नातक भी सबसे ज्यादा 23 हैं। भाजपा के पास 22 ही रहे। पर भाजपा में 12 वीं पास जदयू से 8 ज्यादा 25 हैं। दसवीं पास में भी जदयू बेहद आगे है।

Sunday, November 28, 2010

गंवाई गद्दी
पढ़ाई रद्दी
हंसाई भद्दी
कराई पद्दी
होते नोट, दौड़ती बोट, पीटती गोट, मिलती वोट:सब नसीब का खोट

मेरा भारत महान


दौड़ाओ बोट
बढ़ाओ गोट
चढ़ाओ नोट
पा जाओ वोट
किसका खोट

Saturday, November 27, 2010

छोर

झूठ का दौर
चौतरफा शोर
लफंगे सिरमौर
शरीफ चोर
.काबिल ढोर
हो रहे बोर
नहीं है जोर

जम

दुखों का बम
खुशियां कम
बेशुमार गम
अंखियां नम
फूलता दम
...जिंदा हैं हम

फूट गयी लालटेन

देशपाल सिंह पंवार
जनादेश क्या रहा? नीतीश के सर पर या लालू के डर पर जनता ने मुहर लगाई। चाहे सब कहते घूम रहे हों कि नीतीश का जादू चल गया। विकास का पहिया घूम गया । जातिगत समीकरण ध्वस्त हो गए। पर हकीकत ये भी है कि जनता ने लालू विरोध के नाम पर भी ये जनादेश दिया। मतदाताओं का सबसे बड़ा समूह ऐसा रहा जो नीतीश को भले ही वोट ना देता पर लालू ना आ जाए इस डर से वो आंख बंद करके नीतीश के पीछे चला गया। यही कारण है कि सबको जातिगत समीकरण बिखरते नजर आ रहे हैं। इस हकीकत से परदा एक ना एक दिन जरूर उठेगा पर फिलहाल तो राजग के जश्न का दौर है और राजद के पतन का। लालू ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि राजद का इस तरह बंटाधार होगा। लोकसभा चुनाव में भी ऐसे ही नतीजे आए थे पर वो खुद मुगालते में जी रहे थे कि विधानसभा में क्रांति जरूर करेंगे। इसी मुगालते में वो 15 साल राज भी चलाते रहे। इसी मुगालते की वजह से वो 2005 में ताज भी गंवा बैठे थे। इसी मुगालते के चलते वो सारी जमीन ही अब गंवा बैठे। अगर उन्हें ये मुगालता ना होता तो शायद ही खुद को इस जंग का कप्तान बनाते। अगर ऐसा नहीं करते तो शायद इस बुधवार जैसी पीड़ा उन्हें छू नहीं पाती। पर अगर -मगर से कुछ नहीं होता। होई वही जो राम रचि राखा। हां इससे बड़ी हार उन्हें अब कभी देखने को नहीं मिलेगी। खुद दोनों जगह से राबड़ी की हार और नीतीश कुमार व बीजेपी की जीत को वो पचा नहीं पा रहे हैं। सब कुछ हार गए। उन्हें अब मान लेना चाहिए इसे ही कहते हैं वक्त। एक वक्त ऐसा भी था कि ऊपर वाले ने इतना दिया -जितना इस समय नीतीश की झोली में भी नहीं है। पर लाठी से प्रेम करने वाले ये राजनेता शायद इस बात को बिसरा गया कि सबसे बड़ा लठैत वक्त है। ऊपर वाला है। जिसकी लाठी में आवाज नहीं होती। जिस अंदाज से उसने दिया था उसी अंदाज में राजनीति की बिसात पर सब कुछ ले भी लिया। वे आज सबसे बड़े हारे हुए जुआरी हैं। अब भी अगर मुगालते में हैं तो ईश्वर बचाए। हकीकत में अब मुगालते से बाहर निकलकर आत्ममंथन करने और सही दिशा में चलने का वक्त है तभी वक्त किसी ना किसी मोड़ पर उनका साथ देगा। अब उनकी समझ में आ जाना चाहिए कि नाम से राजनीति नहीं चलती। वोट नहीं मिलते हां करारी चोट जरूर पड़ जाती है। वोट मिलते हैं काम से। आखिर तक वो इस मुगालते में रह गए कि काम की बात करके देख ली जाए। पर जिसके शासन को जनता 15 साल देख चुकी हो उसके ऊपर ये विश्वास कैसे करती कि वो सत्ता में आने पर हर हाथ को रोटी-हर सिर को छत और हर तन को कपड़ा देंगे। वो यहीं चूक गए। लालू ने नीतीश बनने की कोशिश की इस चक्कर में असली लालू कहीं खोकर रह गया। अपने वोट बैंक को जिस अंदाज में लालू पटाया करते थे, मनाया करते थे, गरियाया करते थे वो लालू उस जनता को कहीं नजर ही नहीं आया जो उनके पीछे पागल थी। वो कन्फयूज्ड हो गई। नीतीश को इलीट वर्ग का नेता और लालू को अपना मानने वाली जनता गुल हो गई। राजग के विकास के नारे की चकाचौंध में खो गई। राजद को ही धो गई। राजद की हार के तमाम कारण हैं। 15 साल का बिहार जाम-सीएम पद की रेस में लालू का नाम-पांच साल में नीतीश का काम-जनता को चाहिए था विश्वास का दाम। नीतीश के हाथ में सत्ता आने वाला बिहार अब नहीं रहा पर लालू इस मुद्दे पर भी आज से पहले तक मुगालते में रहे। नीतीश सरकार के समय में चाहे धरातल पर काम हुए या ना हुए हों पर कम से कम अस्तित्व के बचाव का स्पेस जरूर सबको मिला। सब जानते हैं कि जिंदगी पहले है और रोटी बाद में। यही कारण है कि इस बार रोटी मुद्दा नहीं बनी। इस प्रचंड बहुमत का प्रमुख कारण नहीं बनी। कुछ अगर बना तो वो है जनता के मन से डर का खत्म होना। जनता इसी बेखौफ माहौल में जी लेगी। चाहे पेट में रोटी हो या ना हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस चुनाव के वक्त लालू ने पार्टी की चाल-ढाल को बदलने की पूरी कोशिश की। इसी चक्कर में तमाम अपने भी छोड़कर चले गए। उन्होंने खुद को भी बदलने की कोशिश की पर शायद गलत दिशा में। या कहा जाए देर से। 2005 में चुनाव हारने के बाद ही अगर वो जुट जाते तो शायद ये सीन नहीं होता। पार्टी और कुनबा तेड़ा तीन नहीं होता। पर उनके पास वक्त कहां था? रेल में सफलता की मेल ने उन्हें बिहार का ये खेल खेलने का वक्त ही नहीं दिया। लालू के यूं तो सारे दावे गलत साबित हो गए पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कहीं ना कहीं मीडिया ने उनके साथ ज्यादती की है। प्री पोल और एक्जिट पोल के आंकड़े हुबहू होना उन्हें पच नहीं रहा है। मीडिया इसे अपनी जीत मान सकता है पर चुनाव आयोग को ये तो तय करना ही होगा कि ये पोल सही हैं या गलत। अगर गलत हैं तो फिर बंद होने चाहिए। लालू को सारा जनादेश रहस्य लग रहा है। इस रहस्य से वो परदा उठाएंगे। पर परदा इस बात से उठना भी जरूरी है कि आखिर अब लालू और राजद का क्या फ्यूचर है? लालू को पांच साल वेट करना होगा। वेट इस बात का भी करना होगा कि सरकार गलती करे। अपनी खूबियों से लालू अब सत्ता में नहीं आएंगे बल्कि नीतीश सरकार की गल्तियां ही वापस ला सकती हैं। फिलहाल तो ये दूर की कौड़ी लग रही है पर राजनीति है कुछ भी हो सकता है।

बंगला अब कंगला

देशपाल सिंह पंवार
पुरानी कहावत है कि दो सांडों के बीच झुंड का नुकसान। यही हालत लोजपा की है। रामविलास पासवान की है। इससे ज्यादा के वो हकदार थे। उन्हें मिलती पर लालू और नीतीश के बीच में पिस गए। यानि चले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। 2005 फरवरी में वो 12 फीसदी से ज्यादा मतों के आधार पर 29 सीटें जीते थे। फिर नवंबर में मतप्रतिशत तो कम घटा पर सीटे आधी से कम ही रह गईं यानि कुल मिलाकर दस। इस बार लगभगा सूपड़ा ही साफ हो गया। हां सदन में कहने को तीन चेहरे जरूर दिखेंगे वो तब तक जब तक सत्ता पक्ष की निगाह उन पर नहीं जाएगी। आखिर ऐसा क्यों हुआ? कारण तो इस पार्टी के मुखिया खुद तलाशेंगे या उनके सलाहकार उन्हें हमेशा की तरह भरम मैं रखेंगे.पर यह हालत ना तो इस चुनाव की देन है और ना ही हाल-फिलहाल के किसी फैसले की। उन्हें सबसे ज्यादा सीटें कब मिली थी जब उन्होंने खुलकर लालू का विरोध किया था। जिस लालू के विरोध पर उन्होंने पार्टी को खड़ा किया उसी लालू के साथ हाथ मिलाने का नतीजा उन्होंने लोकसभा चुनाव में भी उठाया। अब फिर झेला। तब वो खुद की सीट हारे थे पर इस बार वो राजनीति का मैदान ही हारते नजर आ रहे हैं। कागज पर अपना और लालू का प्रतिशत बेहतर नजर आ सकता था पर धरातल पर उसके क्या खामियाजे उठाने पड़ सकते हैं इसके बारे में ना तो उन्होंने संसदीय चुनाव के वक्त सोचा और ना ही अब। साफ साबित हो गया है कि दोनों दल तो मिले पर उनके वोटरों के दिल नहीं मिले। नतीजों से तो ये तक लगने लगा है कि पिछली बार उपचुनाव में जीत के पीछे कहीं ना कहीं नीतीश कुमार का दिमाग भी रहा होगा। वे शायद इन दोनों को फील गुड में रखना चाहते होंगे ताकि दोनों अलग होकर नहीं साथ मिलकर चुनाव लड़ें। इनके अलग होने से जितना नुकसान लालू का होता उससे कहीं ज्यादा का खतरा नीतीश को रहा होगा। शायद जो उन्होंने चाहा वही हुआ। बेमेल गठजोड़ बेमोल हो गया। गठजोड़ से भी ज्यादा बड़ी गलती रामविलास पासवान ने इस बार तब की जब उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए लालू प्रसाद के नाम पर सहमति दे दी। जिस नेता के राज को बिहार की जनता 15 साल झेल चुकी हो, रग-रग से वाकिफ हो चुकी हो, जिसे गद्दी से उतार चुकी हो, उसे फिर से वो गद्दी क्यों सौंपती? वह भी उस स्थिति में जब पहले दौर में उसकी जान के लाले थे। अब रोटी के लाले हो सकते हैं पर बोटी सलामती के लाले तो नहीं हैं। यानि खुद तस्तरी में परोसकर जीत इन दोनों दिग्गजों ने नीतीश कुमार को सौंप दी। अगर रामविलास पासवान सीएम पद की रेस में अपने नाम पर लालू को राजी कर लेते तो यकीनन बिहार के नतीजे कुछ अलग ही होते। अगर ऐसा नहीं होता और चुनाव बाद ही गठजोड़ के नेता के चयन की बात होती तो भी हालत ये नहीं होती। पर होनी को कौन टाल सकता है? रामविलास पासवान तो खुद ब्रदर मोह को नहीं टाल पाए। उन्हें उपमुख्यमंत्री घोषित करने की बजाय अगर अपनी पुरानी मुस्लिम नेता की थीम को वो आगे बढ़ा देते तो भी उन्हें फायदा होता। जनता का उन पर और ज्यादा विश्वास जमता। परिवारवाद के मोह में फंसने का ठप्पा नहीं लगता। लोजपा 75 सीटों पर लड़ी। ज्यादा पर लड़ती या कम पर कोई फर्क नहीं पड़ता। पर जिस तरह सीट का बंटवारा हुआ तो शायद इस पार्टी के मुखिया ने नंबर पर तो गौर किया पर यह नहीं देखा कि उन्हें कौन सी सीटें मिली हैं? दो दर्जन ऐसी सीटें थी जहां से उनका खाता खुलना ही नहीं था। यानि राजद जहां शर्तिया हार की स्थिति में खुद को पा रहा था वो सीटें रामविलास पासवान को जातिगत समीकरण के आधार पर दे दी गईं। नेताओं के अंदरूनी झगड़ों जैसी कोई बात इस पार्टी में ज्यादा कदापि नहीं रही। इसी कारण टिकट बंटवारे में अगर कुछ सामने आया तो केवल परिवारवाद। पर अंदरूनी इस पर कोई विवाद नहीं था। यह मीडिया की देन तक ही सीमित रहा क्योंकि इस चुनाव में कोई ऐसा नहीं बचा जो इस रोग से बच पाया हो। आखिर शतरंज के जानकार इस नेता को एक बात क्यों समझ में नहीं आई कि लालू प्रसाद का हाथ जिसने थामा वो कहीं का नहीं रहा। लालू से दोस्ती से पहले वामदल किस स्थिति में थे, अब कहां हैं? कांग्रेस कहां थी, अब कहां है? लोजपा कहां थी अब कहां है? सबसे बड़ा सवाल अब यही है कि किया क्या जाए? अलग रास्ते नापे जाएं। या फिर कुछ और। अलग-अलग होकर कांग्रेस-लोजपा और राजद तीनों बिहार में खत्म हो चुके हैं। क्या अब फिर हाथ मिलाने का समय आ गया है? यह जरूरत भी दिख रही है और मजबूरी भी.पासवान को अब यह भी तय करना होगा कि वे बिहार के नेता बनकर राजनीति की पारी खेलना चाहते हैं या देश के नेता बनकर राजनीति के पिच पर बोल्ड होना चाहते हैं। उन्हें यह जरूर समझना होगा कि बंगले में दूसरा कोई ऐसा नहीं जो रहने लायक हो, उसकी रखवाली तक करने लायक हो।

लटका हाथ

देशपाल सिंह पंवार
ना मैडम का जादू चला- ना युवराज का। ना पीएम मन मोह पाए। ना दूसरे कांग्रेसी मतदाता टोह पाए। ये तो कांग्रेसी भी मानते थे कि वे सत्ता में नहीं आएंगे पर वे ये नहीं जानते थे कि भद इस कदर पिटेगी । पार्टी पूरी तरह मिटेगी। पिछला इतिहास भी नहीं दोहराया जा सका। पार्टी सारी सीटों पर लड़ी पर डबल फिगर में नहीं जा पाई। ये फजीहत तब हुई जब राहुल गांधी खुद कमान संभाले हुए थे। ऐसे में मुंह नहीं दिखाना चाहिए था राहुल को- पर अब छिपते नजर आ रहे हैं बड़ी-बड़ी बात करने वाले कांग्रेसी। स्टेट लीडरशिप पर सवाल उठने लगे हैं। ये लीडरशिप सबको लपेटे में लेने लगी है। जनता के हाथों टूटे हाथ को अभी अंदरूनी भी तमाम झटके लगेंगे। हार के असली कारण तक जाने की बातें भी होंगी कुछ लोगों को ये जिम्मा सौंपा भी जाएगा। रिपोर्ट भी आएंगी पर इस समय सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर ये दुर्गत क्यों हुई? कई कारण हैं। पहला ऐन टिकट बंटवारे के वक्त बाहुबलियों, दागियों और रिजेक्टेड नेताओं को दल में प्रवेश देना। उनकी मनमानी को पूरा करना। यूथ से किनारा करना। टिकट बंटवारे में हर पल फैसला बदलना। मजबूत चेहरों की बजाय कमजोर और पैसे वालों को आगे करना। इससे कट्टर कांग्रेसियों में निराशा पैदा हुई। यूथ कांग्रेस की ताकत बन सकता था पर उसे ठेंगा दिखा दिया गया। वो ऐन चुनाव के वक्त ठगा से रह गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जब घर में रोशनी के दिन आने वाले थे तो क्यों लीडर घर और हाथ को खुद ही जलाने पर तुले थे? चुनाव प्रचार में भी कांग्रेसी हल्के साबित हुए। दिल्ली से या दूसरे राज्यों से जब नेता आते थे तो लगता था कि हां कांग्रेस लड़ रही है पर उनके ना रहने पर कहीं नजर नहीं आता था कि कांग्रेस भी इस बार मैदान में है। सबसे बड़ा हार का कारण यही है कि बिहार में कांग्रेस के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिस पर जनता यक्किन कर सके। जिसके पीछे सारे कांग्रेसी खड़े हो सकें। अगर कोई चेहरा होता तो शायद राहुल फैक्टर काम करता। पर कांग्रेस आयातित चेहरों के आधार पर बिहार की जंग जीतना चाहती थी जो हो नहीं सकता। कम से कम बिहार में तो नहीं। राहुल गांधी फैक्टर की हवा खुद कांग्रेसियों ने ही निकाली। अगर इस बार कांग्रेस यूथ को ज्यादा मैदान में रखती तो अभी भले ही सफलता ना मिलती पर शायद 2014 और 15 तक बिहार में कांग्रेस के पास 2-4 चेहरे ऐसे जरूर होते पर ऐसा हो नहीं सका। या कांग्रेस के थिंक टैंक ने करना नहीं चाहा। बिहार के कांग्रेसी इसी तरह बिहेव करते रहे जैसे बस चलने वाली हों और कंडक्टर व ड्राईवर हर किसी को लेकर यही कह रहे हों कि इसे भी बैठा लो। नतीजा बस ऐसी पंचर हो गई कि जितना चलती तो वो भी रास्ता नहीं नाप पाई। कांग्रेस के लिए यह केवल सीटों की हार नहीं है बल्कि बिहार में भीविष्य में खड़ा होने का सुनहरी मौका भी उसने गंवा दिया है। दरबार में नतमस्तक और हुक्म की गुलाम कांग्रेसियों की भीड़ अब दिल्ली का सड़कों पर उतनी नजर नहीं आएगी। वो सीन भी अब शायद ही कभी बिहार में दोहराया जा सकेगा जो टिकट पाने के वक्त पटना से दिल्ली तक कांग्रेसी मुख्यालय और नेताओं के घरों के बाहर तथा अंदर होता था। 243 सीटों पर 10 हजार से ज्यादा दावेदार देखकर सब मान रहे थे कि कांग्रेस कुछ करेगी पर अब तो शायद 10 हजार लोग बिहार में जुटाने में कांग्रेस को पसीने छूट जाएंगे। कांग्रेस नाम अगर बिहार में जिंदा रखना है तो कोई ना कोई दमदार नेता तो कांग्रेस को इस धरती पर पैदा करना ही होगा। लाख टके का सवाल ये भी है कि अब उन नेताओं का क्या होगा जो अपने दल छोड़कर वहां गए थे? उनका क्या होगा जिन्होंने टिकट बांटे थे? उन बाहुबली परिवारों का क्या होगा जो पास होने की आस में वहां झंडा उठाने गए। दल-बदलुओं और परिवारवाद के रहनुमाओं की बिहार की जनता ने रीढ़ की हड्डी ही तोड़ डाली है। पर इतिहास गवाह है कि कांग्रेसी बचने का रास्ता जरूर खोज लेंगे। उनका तर्क अब यही होगा कि जब लालू और पासवान साफ हो गए तो हमारी क्या हैसियत? वो हैसियत तो अब राहुल की भी नहीं रही। वो बार्गेनिंग की स्थिति तो कांग्रेस की भी नहीं रही। बंगाल और दूसरे राज्यों में चुनाव के वक्त साझीदारों से समझौते के वक्त हाथ अब उतना सख्त तो नहीं रह पाएगा ये तय है। तय तो ये भी है कि अब इस दल में एक दूजे की टांग खींची जाएंगी। महबूब अब किसी के महबूब नहीं रहेंगे। बहुतेरों को जाना तो होगा। कुछ मर्जी से जाएंगे कुछ हटाए जाएंगे। भागदड़ मचेगी ये तो तय है। कांग्रेस के पास अब केवल यही विकल्प बचा है कि वो नेता तैयार करे। पासवान के पास पार्टी नहीं बची और कांग्रेस के पास नेता तो क्या पासवान बिहार में कांग्रेस की कमान थाम सकते हैं? अभी ये असंभीव दिख सकता है पर राजनीति में कब क्या हो जाए कौन जानता है? ना काहूं से दोस्ती-ना काहूं से बैर।

लगी है होर

घटा घनघोर
झूठ का दौर
चौतरफा शोर
लफंगे सिरमौर
शरीफ चोर
काबिल ढोर
हो रहे बोर
नहीं है जोर

दूर की बात


देशपाल सिंह पंवार

एक प्रसिद्ध कहावत है-मुर्दा व मूर्ख ही विचार नहीं बदलते । समय से पहले विचार बदलने और वैसा ही करने वाले दूरंदेशी कहलाते हैं। जिम्मेदारी पाते नहीं लेते हैं और उसे निभाते हैं। यही असली लीडर बनते हैं, जो बदलाव लाते हैं। समाज में भी। देश में भी। समय पर विचार बदलने और वैसा करने वाले समजदार कहला जाते हैं। जिम्मेदारी पाते हैं,उसे निभाकर साख कायम करने में सफल हो जाते हैं। इतिहास से सबक सीखकर लीडर भी बन जाते हैं। समय के बाद विचार बदलने वाले अवसरवादी तो कहलाते ही हैं,ठगे से भी रह जाते हैं पर अपनी गलतियों का अगर एहसास कर लेतें हैं तो फिर जीरो से नई पारी शुरू करते हैं। तमाम विपरीत परिस्थितियों व अपमान झलने के बावजूद मेहनत से इस लायक खुद को बना लेतें हैं कि कोई उन्हें जिम्मेवारी लायक समझने लगता है। मिलने पर ऐसे चेहरे आगे बढ़ जाते हैं। पर तमाम ऐसे होते हैं जो कभी विचार नहीं बदलते ता जिंदगी वही लकीर पीटते रह जाते हैं। नतीजा कंही के नहीं रहते। भ्रम में जीना ऐसों की आदत बन जाती है। यही भ्रम उन्हें ले डूबता है। वो ये भूल जाते हैं कि इतिहास को ·भी सिखाया नहीं जा सकता बस उससे सीखा ही जा सकता है। पर यहां भी उनके अंदर सबसे ज्यादा ज्ञानी व सिखाने वाले का भ्रम हमेशा रहता है जो सीखने की इजाजत कभी नहीं देता। बिहार चुनाव में इस कहावत के सारे सीन दोहराए गए।

Wednesday, November 24, 2010

अब असली परीक्षा

देशपाल सिंह पंवार

हैरतअंगेज ऐतिहासिक जनादेश:लालू-पासवान-राहुल गांधी का बेढंगा भेष। जातिगत समीकरण के दफ्न अवशेष। परिवारवाद के खाते में जीरो शेष। बस अब विकास ही सबसे विशेष। इस शब्द के मीन ने इधर बजाई तीन ki बीन-उधर बदल डाला तीन का सारा सीन। जनता पास, नीतीश पास, मीडिया पास। सत्ता पक्ष खुश हैं। बेहद खुश। दिन ही ऐसा है। तीर के वीर ही अब असली मीर। दलदल में कमल ki भी लहलहाई फसल। हाथ झटका -लालटेन पटका -लाल झंडा लटका -बंगला सटका -हाथी भटका , बिहार का मतदाता ऐसा मटका कि अच्छे-अच्छों के सामने अब अस्तित्व का खटका । हर जगह-हर कोई एक्सपर्ट है। समीक्षा हो रही हैं। हारने वाले गम गलत करने के बाद जुटेंगे। रहस्य से पर्दा खोलेंगे। इतना प्रचंड बहुमत सबके लिए रहस्यमय है। ना तो विकास की धारा बह रही थी और ना ही कोई आंधी-फिर ऐसा कोन सा जादुई चिराग हाथ लगा की पूरा विपक्ष ही साफ हो गया। जदयू व भाजपा अलग-अलग सरका र बनाने की स्थिति में खड़े हो गए। इसका रहस्य यही है कि पिटने-लुटने-मरने का डर नहीं रहा। सारे मास के हर चेहरे में विकास के विश्वास की आस जगी। सपने जगे। लालू-पासवान से नीतीश भले लगे। तभी ऐसी जीत के बिगुल बजे। नीतीश कु मार के कानों में आज ये साज मीठा है। लुभावना है। पर लाख टके का सवाल यही है कि क्या आगे ये तान ऐसी ही मधुर रहेगी? सब तकदीर चमकने के सपने देख रहे हैं। पूरे हुए तो शुभान अल्लाह। नहीं तो ...। सपने बहुत हैं पर कल के बाद नीतीश सरकार के पास महज १८२५ दिन बचे हैं। रोज ये संख्या घटेगी। सपनों के दबाव बढ़ेंगे। कोई दलील नहीं चलेगी। सच में असली परीक्षा की घड़ी तो सरकार की अब आई है। जनादेश की यही दुहाई है। गद्दी व बड़े व छोटे की लड़ाई से इस गठजोड़ से अब दूर रहना ही होगा। दूसरे की थाली में ज्यादा खीर देखना बंद क रना होगा। गद्दी की चिंता जनता ने हर ली है अब हर दुख इनको हरने होंगे। पेट भरने होंगे। मकान बनाने होंगे। रोजगार पैदा करने होंगे। स्कूल -कालेज खोलने होंगे। लालटेन फोडऩे के बाद गांव-गांव बल्ब जलाने होंगे। हरित क्रांति लानी होगी। विकास की धारा गरीब-गुरबों तक ले जानी होगी। बाकी की तो बात क रना फिजूल,लालू-पासवान के पास अब उस वक्त के इंतजार के अलावा कोई चारा नहीं। अब इस सरका र कि गल्तियां हीं उन्हें बिहार की राजनीति में कोई जगह दे स·ती है। बाकी तो कोई रास्ता नहीं कम से कम फिलहाल। वे क्यों हारे वो भी जानते हैं-जनता भी। मीडिया को भी अब पत्रकारिता के साथ-साथ ज्योतिष का धंधा शुरू कर देना चाहिए। ऐसी भविष्यवाणी भला कोई ज्योतिषी कर पाएगा? इस जीत पर बधाई और दूसरी पारी के वास्ते नीतीश सरकार को ढेर सारी शुभकामनाएं। सब चाहते हैं बिहार चमके । काम करने वाले नेताओं के चेहरे यूं हीं दमकें ।

Tuesday, November 23, 2010

आ रही सरकार

जा रहा है इंतजार। आ रही है सरकार। दिखेगा आज जनमत का सार। कहीं उमड़ेगा प्यार-कंही होगा तक रार। किसी का होगा बेड़ा पार- कोई होगा शर्मसार। तो हो जाओ तैयार-वोट लेने वाले भी-नोट देने वाले भी-गोठ बिठाने वाले भी-लोट पोट होने वाले भी, चोट देने वाले भी-खोट खाने व निकालने वाले भी। मीडिया वाले भी। आंख धुलेंगी-मशीन खुलेंगी। सशरीर सारे नेता काउंटिंग सेंटर पर होंगे पर दिमाग आउट आफ सेंटर होंगे। दिल में भगवन से होगी आस-मास की परीक्षा में कराएंगे पास। नहीं आ रहा कुछ रास-बस बैचेनी का ही वास। जीत पर प्रीत और हार पर संत्रास। नींद गायब, दिल-बिल बेकाबू, विल में ह्रास। गद्दी की राह की ये चाह शरीर और हौसलों की सारी थाह की कुछ ही पल में ऐसी परीक्षा लेगी कि बड़े-बड़े पिछड़ते-हिलते-डुलते-गिरते-पड़ते-बिलखते-निकलते-दुबकते नजर आएंगे। बाकी सब एक्सपर्ट भी टी वी पर चिपकेंगे। गलत हुए तो बीवी पर बरसेंगे-घर वालों पर बिदकेगे। नाश्ते का वक्त होगा। कोई मस्त तो कोई पस्त होगा। हम भी आशावादी हैं पर लाख टके का सवाल यही है कि आज वो कहां होगा जिसके नाम पर ये सारा मेला इस धरा पर भरा? क्या अब वो डरा और मरा दिखाई नहीं देगा? क्या इवीएम के अलावा वो कहीं कि सी सीन में होगा? आज किसी को भी मिले ताज पर क्या वास्तव में जनमत का ही होगा राज? उसका ही होगा साज? सबको उस पर ही होगा नाज? वो दौर कब आएगा जब उसका होगा कोई काज ? या वो सिर्फ झेलने को बना है बाज की गाज? हम जनता के सपने दिखा रहे हैं। महज ५० फीसदी मतदान पर इतरा रहे हैं। तालियां बजा रहे हैं। क्या आधी आबादी के मतदान को पूर्ण जनमत माना जाए? २-४ फीसदी के अंतर से ना जानें केतने दागी-अनपढ़ सदन में जाएंगे, माननीय क हलाएंगे। सरकार चलाएंगे-जनता को टहलाएंगे। क्या यही गरीब बंदों के असली नुमाइंदे होंगे? शायद नहीं। क्या ये महज नेताओं की परीक्षा की घड़ी है? क्या जनता इस दायरे में नहीं आती? क्या मीडिया इस दायरे में नहीं आता? जनता अगर ५० फीसदी मतदान के प्रति जागरु· हो गई है तो क्या मीडिया ५० फीसदी भी पत्रकारिता के सिद्धांतों की राह पर है? लोकतंत्र में अगर जनता को ही राज-ताज का मालिक बनाया गया है तो फिर मीडिया को ये अधिकार की सने दिया के वे जनता के हक पर डाले। एक्जिट पोल के ढोल में जो चाहे बोल बोले। पाबंदी से ज्यादा ये सब बहस के मुद्दे हैं। आत्म मंथन के मसले हैं। जब तक सब चुनाव की परीक्षा के रूप में नहीं देखेंगे-नहीं लेंगे-नहीं मानेंगे तब तक बुरा और अच्छा राज तो कहलाता रहेगा पर जनता राज हकीकत से दूर ही नजर आएगा। खैर हिंदी और अंग्रेजी के बीच आज संख्या का दिन होगा। जिसकी नेताओं को भी जरूरत है। दलों को भी जरूरत है। मीडिया को भी जरूरत है। पर सबसे ज्यादा जरूरत है जनता को । जो भी आज राज में आए -ताज पहने काश इस संख्या (जनहित की अर्थनीति) का काज वो पांच साल लगातार करता जाए तो हमारे बिहार जैसा कोई नहीं होगा। उस जैसा राजा कोई नहीं क हलाएगा। उस जैसा राज ही जनता का राज कहलाएगा। वैसे तो राजनेता मानते नहीं-सुनते नहीं पर यही कहना है की जीत पर इतराना मत-हार पर खिसियाना मत। यही खेल भावना है। यही जनभावना है।

दौर

किस्मत कमबख्त
वक्त बेहद सख्त
धराशाई दरख्त
डकेत बड़े भक्त
बे मोल है रक्त.

Monday, November 22, 2010

कागजी वीर

खुद नहीं बन पाए मीर-अरसे से दबाए बैठे थे नीर-दूसरे की थाली में दिखती ज्यादा खीर-पत्रकार बिरादरी के इन मठाधीशों की यही पीर- आदत से लाचार, व्यवहार से हीर-बातों के ये शेर चलाने लगे हैं तीर-अब निशाने पर हैं बरखा-वीर,दिमागी दिवालियों की बढ़ती जा रही है भीर।क्यों आखिर क्यों? खुद स्टोरी ब्रेक कर नहीं पाते-दूसरों को पचा नहीं पाते। अपनी कोई जगह बना नहीं पाते। अपनी रेखा बढ़ी कर नहीं पाते। हां दूसरे की मिटाने में जुट जाते हैं। ज्ञान में अंगूठा छाप-पत्रकारिता के ये पाप-तेजी से रास्ता रहे हैं नाप- खामोश हैं हम और आप। कड़वा सच यही है की वीर-बरखा जैसे पत्रकारिता का नाश चाहे ना कर पर जिन बंदरों के हाथों में उस्तरा आ गया है वे इसकी मय्यत उठाकर ही दम लेंगे।
बिना तह तक जाए खबर लिखने की आदत जो ठहरी। वैसे नौ नकटों को किसी की नाक कहां बर्दाश्त? सत्यवादी हरिशचंद्र हो, सारे पाक साफ हो तो जुटाओ हिम्मत, बनाओ संगठन, बताओ केसे-केसे खबर बेचकर-रोक क र-धमकाकर किस -किस से पैसा कमाया। ऐसी औकात रही है तो करो सच का सामना।
उनकी चाल में मोच
इनकी सोच में लोच
कोयल रही हैं नोच
सब कुछ होच-पोच

Sunday, March 21, 2010

महेंदी


दुनिया






रेखा और अमिताभ


रंग तरंग


आनद


बिगडती चाल



एक्सिडेंट

जिंदगी और मौत का सफ़र



शर्मिला

जेसा देश-वेसा भेष



मलखान की मूंछ


शांति शांति


अपने- अपने काम





कंही धुल-कंही फूल


नसीब

मायावी

गंगा

हिम्मत

हरिद्वार



हमला

हार से दुखी खान

हेमा का जादू

ऐश की मुस्कान

आरती


शिल्पा और विद्या


कंगना और प्रियंका


दोस्ती

आस