Monday, November 22, 2010

कागजी वीर

खुद नहीं बन पाए मीर-अरसे से दबाए बैठे थे नीर-दूसरे की थाली में दिखती ज्यादा खीर-पत्रकार बिरादरी के इन मठाधीशों की यही पीर- आदत से लाचार, व्यवहार से हीर-बातों के ये शेर चलाने लगे हैं तीर-अब निशाने पर हैं बरखा-वीर,दिमागी दिवालियों की बढ़ती जा रही है भीर।क्यों आखिर क्यों? खुद स्टोरी ब्रेक कर नहीं पाते-दूसरों को पचा नहीं पाते। अपनी कोई जगह बना नहीं पाते। अपनी रेखा बढ़ी कर नहीं पाते। हां दूसरे की मिटाने में जुट जाते हैं। ज्ञान में अंगूठा छाप-पत्रकारिता के ये पाप-तेजी से रास्ता रहे हैं नाप- खामोश हैं हम और आप। कड़वा सच यही है की वीर-बरखा जैसे पत्रकारिता का नाश चाहे ना कर पर जिन बंदरों के हाथों में उस्तरा आ गया है वे इसकी मय्यत उठाकर ही दम लेंगे।
बिना तह तक जाए खबर लिखने की आदत जो ठहरी। वैसे नौ नकटों को किसी की नाक कहां बर्दाश्त? सत्यवादी हरिशचंद्र हो, सारे पाक साफ हो तो जुटाओ हिम्मत, बनाओ संगठन, बताओ केसे-केसे खबर बेचकर-रोक क र-धमकाकर किस -किस से पैसा कमाया। ऐसी औकात रही है तो करो सच का सामना।
उनकी चाल में मोच
इनकी सोच में लोच
कोयल रही हैं नोच
सब कुछ होच-पोच