Saturday, November 27, 2010

छोर

झूठ का दौर
चौतरफा शोर
लफंगे सिरमौर
शरीफ चोर
.काबिल ढोर
हो रहे बोर
नहीं है जोर

जम

दुखों का बम
खुशियां कम
बेशुमार गम
अंखियां नम
फूलता दम
...जिंदा हैं हम

फूट गयी लालटेन

देशपाल सिंह पंवार
जनादेश क्या रहा? नीतीश के सर पर या लालू के डर पर जनता ने मुहर लगाई। चाहे सब कहते घूम रहे हों कि नीतीश का जादू चल गया। विकास का पहिया घूम गया । जातिगत समीकरण ध्वस्त हो गए। पर हकीकत ये भी है कि जनता ने लालू विरोध के नाम पर भी ये जनादेश दिया। मतदाताओं का सबसे बड़ा समूह ऐसा रहा जो नीतीश को भले ही वोट ना देता पर लालू ना आ जाए इस डर से वो आंख बंद करके नीतीश के पीछे चला गया। यही कारण है कि सबको जातिगत समीकरण बिखरते नजर आ रहे हैं। इस हकीकत से परदा एक ना एक दिन जरूर उठेगा पर फिलहाल तो राजग के जश्न का दौर है और राजद के पतन का। लालू ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि राजद का इस तरह बंटाधार होगा। लोकसभा चुनाव में भी ऐसे ही नतीजे आए थे पर वो खुद मुगालते में जी रहे थे कि विधानसभा में क्रांति जरूर करेंगे। इसी मुगालते में वो 15 साल राज भी चलाते रहे। इसी मुगालते की वजह से वो 2005 में ताज भी गंवा बैठे थे। इसी मुगालते के चलते वो सारी जमीन ही अब गंवा बैठे। अगर उन्हें ये मुगालता ना होता तो शायद ही खुद को इस जंग का कप्तान बनाते। अगर ऐसा नहीं करते तो शायद इस बुधवार जैसी पीड़ा उन्हें छू नहीं पाती। पर अगर -मगर से कुछ नहीं होता। होई वही जो राम रचि राखा। हां इससे बड़ी हार उन्हें अब कभी देखने को नहीं मिलेगी। खुद दोनों जगह से राबड़ी की हार और नीतीश कुमार व बीजेपी की जीत को वो पचा नहीं पा रहे हैं। सब कुछ हार गए। उन्हें अब मान लेना चाहिए इसे ही कहते हैं वक्त। एक वक्त ऐसा भी था कि ऊपर वाले ने इतना दिया -जितना इस समय नीतीश की झोली में भी नहीं है। पर लाठी से प्रेम करने वाले ये राजनेता शायद इस बात को बिसरा गया कि सबसे बड़ा लठैत वक्त है। ऊपर वाला है। जिसकी लाठी में आवाज नहीं होती। जिस अंदाज से उसने दिया था उसी अंदाज में राजनीति की बिसात पर सब कुछ ले भी लिया। वे आज सबसे बड़े हारे हुए जुआरी हैं। अब भी अगर मुगालते में हैं तो ईश्वर बचाए। हकीकत में अब मुगालते से बाहर निकलकर आत्ममंथन करने और सही दिशा में चलने का वक्त है तभी वक्त किसी ना किसी मोड़ पर उनका साथ देगा। अब उनकी समझ में आ जाना चाहिए कि नाम से राजनीति नहीं चलती। वोट नहीं मिलते हां करारी चोट जरूर पड़ जाती है। वोट मिलते हैं काम से। आखिर तक वो इस मुगालते में रह गए कि काम की बात करके देख ली जाए। पर जिसके शासन को जनता 15 साल देख चुकी हो उसके ऊपर ये विश्वास कैसे करती कि वो सत्ता में आने पर हर हाथ को रोटी-हर सिर को छत और हर तन को कपड़ा देंगे। वो यहीं चूक गए। लालू ने नीतीश बनने की कोशिश की इस चक्कर में असली लालू कहीं खोकर रह गया। अपने वोट बैंक को जिस अंदाज में लालू पटाया करते थे, मनाया करते थे, गरियाया करते थे वो लालू उस जनता को कहीं नजर ही नहीं आया जो उनके पीछे पागल थी। वो कन्फयूज्ड हो गई। नीतीश को इलीट वर्ग का नेता और लालू को अपना मानने वाली जनता गुल हो गई। राजग के विकास के नारे की चकाचौंध में खो गई। राजद को ही धो गई। राजद की हार के तमाम कारण हैं। 15 साल का बिहार जाम-सीएम पद की रेस में लालू का नाम-पांच साल में नीतीश का काम-जनता को चाहिए था विश्वास का दाम। नीतीश के हाथ में सत्ता आने वाला बिहार अब नहीं रहा पर लालू इस मुद्दे पर भी आज से पहले तक मुगालते में रहे। नीतीश सरकार के समय में चाहे धरातल पर काम हुए या ना हुए हों पर कम से कम अस्तित्व के बचाव का स्पेस जरूर सबको मिला। सब जानते हैं कि जिंदगी पहले है और रोटी बाद में। यही कारण है कि इस बार रोटी मुद्दा नहीं बनी। इस प्रचंड बहुमत का प्रमुख कारण नहीं बनी। कुछ अगर बना तो वो है जनता के मन से डर का खत्म होना। जनता इसी बेखौफ माहौल में जी लेगी। चाहे पेट में रोटी हो या ना हो। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस चुनाव के वक्त लालू ने पार्टी की चाल-ढाल को बदलने की पूरी कोशिश की। इसी चक्कर में तमाम अपने भी छोड़कर चले गए। उन्होंने खुद को भी बदलने की कोशिश की पर शायद गलत दिशा में। या कहा जाए देर से। 2005 में चुनाव हारने के बाद ही अगर वो जुट जाते तो शायद ये सीन नहीं होता। पार्टी और कुनबा तेड़ा तीन नहीं होता। पर उनके पास वक्त कहां था? रेल में सफलता की मेल ने उन्हें बिहार का ये खेल खेलने का वक्त ही नहीं दिया। लालू के यूं तो सारे दावे गलत साबित हो गए पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कहीं ना कहीं मीडिया ने उनके साथ ज्यादती की है। प्री पोल और एक्जिट पोल के आंकड़े हुबहू होना उन्हें पच नहीं रहा है। मीडिया इसे अपनी जीत मान सकता है पर चुनाव आयोग को ये तो तय करना ही होगा कि ये पोल सही हैं या गलत। अगर गलत हैं तो फिर बंद होने चाहिए। लालू को सारा जनादेश रहस्य लग रहा है। इस रहस्य से वो परदा उठाएंगे। पर परदा इस बात से उठना भी जरूरी है कि आखिर अब लालू और राजद का क्या फ्यूचर है? लालू को पांच साल वेट करना होगा। वेट इस बात का भी करना होगा कि सरकार गलती करे। अपनी खूबियों से लालू अब सत्ता में नहीं आएंगे बल्कि नीतीश सरकार की गल्तियां ही वापस ला सकती हैं। फिलहाल तो ये दूर की कौड़ी लग रही है पर राजनीति है कुछ भी हो सकता है।

बंगला अब कंगला

देशपाल सिंह पंवार
पुरानी कहावत है कि दो सांडों के बीच झुंड का नुकसान। यही हालत लोजपा की है। रामविलास पासवान की है। इससे ज्यादा के वो हकदार थे। उन्हें मिलती पर लालू और नीतीश के बीच में पिस गए। यानि चले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। 2005 फरवरी में वो 12 फीसदी से ज्यादा मतों के आधार पर 29 सीटें जीते थे। फिर नवंबर में मतप्रतिशत तो कम घटा पर सीटे आधी से कम ही रह गईं यानि कुल मिलाकर दस। इस बार लगभगा सूपड़ा ही साफ हो गया। हां सदन में कहने को तीन चेहरे जरूर दिखेंगे वो तब तक जब तक सत्ता पक्ष की निगाह उन पर नहीं जाएगी। आखिर ऐसा क्यों हुआ? कारण तो इस पार्टी के मुखिया खुद तलाशेंगे या उनके सलाहकार उन्हें हमेशा की तरह भरम मैं रखेंगे.पर यह हालत ना तो इस चुनाव की देन है और ना ही हाल-फिलहाल के किसी फैसले की। उन्हें सबसे ज्यादा सीटें कब मिली थी जब उन्होंने खुलकर लालू का विरोध किया था। जिस लालू के विरोध पर उन्होंने पार्टी को खड़ा किया उसी लालू के साथ हाथ मिलाने का नतीजा उन्होंने लोकसभा चुनाव में भी उठाया। अब फिर झेला। तब वो खुद की सीट हारे थे पर इस बार वो राजनीति का मैदान ही हारते नजर आ रहे हैं। कागज पर अपना और लालू का प्रतिशत बेहतर नजर आ सकता था पर धरातल पर उसके क्या खामियाजे उठाने पड़ सकते हैं इसके बारे में ना तो उन्होंने संसदीय चुनाव के वक्त सोचा और ना ही अब। साफ साबित हो गया है कि दोनों दल तो मिले पर उनके वोटरों के दिल नहीं मिले। नतीजों से तो ये तक लगने लगा है कि पिछली बार उपचुनाव में जीत के पीछे कहीं ना कहीं नीतीश कुमार का दिमाग भी रहा होगा। वे शायद इन दोनों को फील गुड में रखना चाहते होंगे ताकि दोनों अलग होकर नहीं साथ मिलकर चुनाव लड़ें। इनके अलग होने से जितना नुकसान लालू का होता उससे कहीं ज्यादा का खतरा नीतीश को रहा होगा। शायद जो उन्होंने चाहा वही हुआ। बेमेल गठजोड़ बेमोल हो गया। गठजोड़ से भी ज्यादा बड़ी गलती रामविलास पासवान ने इस बार तब की जब उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए लालू प्रसाद के नाम पर सहमति दे दी। जिस नेता के राज को बिहार की जनता 15 साल झेल चुकी हो, रग-रग से वाकिफ हो चुकी हो, जिसे गद्दी से उतार चुकी हो, उसे फिर से वो गद्दी क्यों सौंपती? वह भी उस स्थिति में जब पहले दौर में उसकी जान के लाले थे। अब रोटी के लाले हो सकते हैं पर बोटी सलामती के लाले तो नहीं हैं। यानि खुद तस्तरी में परोसकर जीत इन दोनों दिग्गजों ने नीतीश कुमार को सौंप दी। अगर रामविलास पासवान सीएम पद की रेस में अपने नाम पर लालू को राजी कर लेते तो यकीनन बिहार के नतीजे कुछ अलग ही होते। अगर ऐसा नहीं होता और चुनाव बाद ही गठजोड़ के नेता के चयन की बात होती तो भी हालत ये नहीं होती। पर होनी को कौन टाल सकता है? रामविलास पासवान तो खुद ब्रदर मोह को नहीं टाल पाए। उन्हें उपमुख्यमंत्री घोषित करने की बजाय अगर अपनी पुरानी मुस्लिम नेता की थीम को वो आगे बढ़ा देते तो भी उन्हें फायदा होता। जनता का उन पर और ज्यादा विश्वास जमता। परिवारवाद के मोह में फंसने का ठप्पा नहीं लगता। लोजपा 75 सीटों पर लड़ी। ज्यादा पर लड़ती या कम पर कोई फर्क नहीं पड़ता। पर जिस तरह सीट का बंटवारा हुआ तो शायद इस पार्टी के मुखिया ने नंबर पर तो गौर किया पर यह नहीं देखा कि उन्हें कौन सी सीटें मिली हैं? दो दर्जन ऐसी सीटें थी जहां से उनका खाता खुलना ही नहीं था। यानि राजद जहां शर्तिया हार की स्थिति में खुद को पा रहा था वो सीटें रामविलास पासवान को जातिगत समीकरण के आधार पर दे दी गईं। नेताओं के अंदरूनी झगड़ों जैसी कोई बात इस पार्टी में ज्यादा कदापि नहीं रही। इसी कारण टिकट बंटवारे में अगर कुछ सामने आया तो केवल परिवारवाद। पर अंदरूनी इस पर कोई विवाद नहीं था। यह मीडिया की देन तक ही सीमित रहा क्योंकि इस चुनाव में कोई ऐसा नहीं बचा जो इस रोग से बच पाया हो। आखिर शतरंज के जानकार इस नेता को एक बात क्यों समझ में नहीं आई कि लालू प्रसाद का हाथ जिसने थामा वो कहीं का नहीं रहा। लालू से दोस्ती से पहले वामदल किस स्थिति में थे, अब कहां हैं? कांग्रेस कहां थी, अब कहां है? लोजपा कहां थी अब कहां है? सबसे बड़ा सवाल अब यही है कि किया क्या जाए? अलग रास्ते नापे जाएं। या फिर कुछ और। अलग-अलग होकर कांग्रेस-लोजपा और राजद तीनों बिहार में खत्म हो चुके हैं। क्या अब फिर हाथ मिलाने का समय आ गया है? यह जरूरत भी दिख रही है और मजबूरी भी.पासवान को अब यह भी तय करना होगा कि वे बिहार के नेता बनकर राजनीति की पारी खेलना चाहते हैं या देश के नेता बनकर राजनीति के पिच पर बोल्ड होना चाहते हैं। उन्हें यह जरूर समझना होगा कि बंगले में दूसरा कोई ऐसा नहीं जो रहने लायक हो, उसकी रखवाली तक करने लायक हो।

लटका हाथ

देशपाल सिंह पंवार
ना मैडम का जादू चला- ना युवराज का। ना पीएम मन मोह पाए। ना दूसरे कांग्रेसी मतदाता टोह पाए। ये तो कांग्रेसी भी मानते थे कि वे सत्ता में नहीं आएंगे पर वे ये नहीं जानते थे कि भद इस कदर पिटेगी । पार्टी पूरी तरह मिटेगी। पिछला इतिहास भी नहीं दोहराया जा सका। पार्टी सारी सीटों पर लड़ी पर डबल फिगर में नहीं जा पाई। ये फजीहत तब हुई जब राहुल गांधी खुद कमान संभाले हुए थे। ऐसे में मुंह नहीं दिखाना चाहिए था राहुल को- पर अब छिपते नजर आ रहे हैं बड़ी-बड़ी बात करने वाले कांग्रेसी। स्टेट लीडरशिप पर सवाल उठने लगे हैं। ये लीडरशिप सबको लपेटे में लेने लगी है। जनता के हाथों टूटे हाथ को अभी अंदरूनी भी तमाम झटके लगेंगे। हार के असली कारण तक जाने की बातें भी होंगी कुछ लोगों को ये जिम्मा सौंपा भी जाएगा। रिपोर्ट भी आएंगी पर इस समय सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर ये दुर्गत क्यों हुई? कई कारण हैं। पहला ऐन टिकट बंटवारे के वक्त बाहुबलियों, दागियों और रिजेक्टेड नेताओं को दल में प्रवेश देना। उनकी मनमानी को पूरा करना। यूथ से किनारा करना। टिकट बंटवारे में हर पल फैसला बदलना। मजबूत चेहरों की बजाय कमजोर और पैसे वालों को आगे करना। इससे कट्टर कांग्रेसियों में निराशा पैदा हुई। यूथ कांग्रेस की ताकत बन सकता था पर उसे ठेंगा दिखा दिया गया। वो ऐन चुनाव के वक्त ठगा से रह गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जब घर में रोशनी के दिन आने वाले थे तो क्यों लीडर घर और हाथ को खुद ही जलाने पर तुले थे? चुनाव प्रचार में भी कांग्रेसी हल्के साबित हुए। दिल्ली से या दूसरे राज्यों से जब नेता आते थे तो लगता था कि हां कांग्रेस लड़ रही है पर उनके ना रहने पर कहीं नजर नहीं आता था कि कांग्रेस भी इस बार मैदान में है। सबसे बड़ा हार का कारण यही है कि बिहार में कांग्रेस के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिस पर जनता यक्किन कर सके। जिसके पीछे सारे कांग्रेसी खड़े हो सकें। अगर कोई चेहरा होता तो शायद राहुल फैक्टर काम करता। पर कांग्रेस आयातित चेहरों के आधार पर बिहार की जंग जीतना चाहती थी जो हो नहीं सकता। कम से कम बिहार में तो नहीं। राहुल गांधी फैक्टर की हवा खुद कांग्रेसियों ने ही निकाली। अगर इस बार कांग्रेस यूथ को ज्यादा मैदान में रखती तो अभी भले ही सफलता ना मिलती पर शायद 2014 और 15 तक बिहार में कांग्रेस के पास 2-4 चेहरे ऐसे जरूर होते पर ऐसा हो नहीं सका। या कांग्रेस के थिंक टैंक ने करना नहीं चाहा। बिहार के कांग्रेसी इसी तरह बिहेव करते रहे जैसे बस चलने वाली हों और कंडक्टर व ड्राईवर हर किसी को लेकर यही कह रहे हों कि इसे भी बैठा लो। नतीजा बस ऐसी पंचर हो गई कि जितना चलती तो वो भी रास्ता नहीं नाप पाई। कांग्रेस के लिए यह केवल सीटों की हार नहीं है बल्कि बिहार में भीविष्य में खड़ा होने का सुनहरी मौका भी उसने गंवा दिया है। दरबार में नतमस्तक और हुक्म की गुलाम कांग्रेसियों की भीड़ अब दिल्ली का सड़कों पर उतनी नजर नहीं आएगी। वो सीन भी अब शायद ही कभी बिहार में दोहराया जा सकेगा जो टिकट पाने के वक्त पटना से दिल्ली तक कांग्रेसी मुख्यालय और नेताओं के घरों के बाहर तथा अंदर होता था। 243 सीटों पर 10 हजार से ज्यादा दावेदार देखकर सब मान रहे थे कि कांग्रेस कुछ करेगी पर अब तो शायद 10 हजार लोग बिहार में जुटाने में कांग्रेस को पसीने छूट जाएंगे। कांग्रेस नाम अगर बिहार में जिंदा रखना है तो कोई ना कोई दमदार नेता तो कांग्रेस को इस धरती पर पैदा करना ही होगा। लाख टके का सवाल ये भी है कि अब उन नेताओं का क्या होगा जो अपने दल छोड़कर वहां गए थे? उनका क्या होगा जिन्होंने टिकट बांटे थे? उन बाहुबली परिवारों का क्या होगा जो पास होने की आस में वहां झंडा उठाने गए। दल-बदलुओं और परिवारवाद के रहनुमाओं की बिहार की जनता ने रीढ़ की हड्डी ही तोड़ डाली है। पर इतिहास गवाह है कि कांग्रेसी बचने का रास्ता जरूर खोज लेंगे। उनका तर्क अब यही होगा कि जब लालू और पासवान साफ हो गए तो हमारी क्या हैसियत? वो हैसियत तो अब राहुल की भी नहीं रही। वो बार्गेनिंग की स्थिति तो कांग्रेस की भी नहीं रही। बंगाल और दूसरे राज्यों में चुनाव के वक्त साझीदारों से समझौते के वक्त हाथ अब उतना सख्त तो नहीं रह पाएगा ये तय है। तय तो ये भी है कि अब इस दल में एक दूजे की टांग खींची जाएंगी। महबूब अब किसी के महबूब नहीं रहेंगे। बहुतेरों को जाना तो होगा। कुछ मर्जी से जाएंगे कुछ हटाए जाएंगे। भागदड़ मचेगी ये तो तय है। कांग्रेस के पास अब केवल यही विकल्प बचा है कि वो नेता तैयार करे। पासवान के पास पार्टी नहीं बची और कांग्रेस के पास नेता तो क्या पासवान बिहार में कांग्रेस की कमान थाम सकते हैं? अभी ये असंभीव दिख सकता है पर राजनीति में कब क्या हो जाए कौन जानता है? ना काहूं से दोस्ती-ना काहूं से बैर।

लगी है होर

घटा घनघोर
झूठ का दौर
चौतरफा शोर
लफंगे सिरमौर
शरीफ चोर
काबिल ढोर
हो रहे बोर
नहीं है जोर

दूर की बात


देशपाल सिंह पंवार

एक प्रसिद्ध कहावत है-मुर्दा व मूर्ख ही विचार नहीं बदलते । समय से पहले विचार बदलने और वैसा ही करने वाले दूरंदेशी कहलाते हैं। जिम्मेदारी पाते नहीं लेते हैं और उसे निभाते हैं। यही असली लीडर बनते हैं, जो बदलाव लाते हैं। समाज में भी। देश में भी। समय पर विचार बदलने और वैसा करने वाले समजदार कहला जाते हैं। जिम्मेदारी पाते हैं,उसे निभाकर साख कायम करने में सफल हो जाते हैं। इतिहास से सबक सीखकर लीडर भी बन जाते हैं। समय के बाद विचार बदलने वाले अवसरवादी तो कहलाते ही हैं,ठगे से भी रह जाते हैं पर अपनी गलतियों का अगर एहसास कर लेतें हैं तो फिर जीरो से नई पारी शुरू करते हैं। तमाम विपरीत परिस्थितियों व अपमान झलने के बावजूद मेहनत से इस लायक खुद को बना लेतें हैं कि कोई उन्हें जिम्मेवारी लायक समझने लगता है। मिलने पर ऐसे चेहरे आगे बढ़ जाते हैं। पर तमाम ऐसे होते हैं जो कभी विचार नहीं बदलते ता जिंदगी वही लकीर पीटते रह जाते हैं। नतीजा कंही के नहीं रहते। भ्रम में जीना ऐसों की आदत बन जाती है। यही भ्रम उन्हें ले डूबता है। वो ये भूल जाते हैं कि इतिहास को ·भी सिखाया नहीं जा सकता बस उससे सीखा ही जा सकता है। पर यहां भी उनके अंदर सबसे ज्यादा ज्ञानी व सिखाने वाले का भ्रम हमेशा रहता है जो सीखने की इजाजत कभी नहीं देता। बिहार चुनाव में इस कहावत के सारे सीन दोहराए गए।