Saturday, August 27, 2011

सड़क अब ज्यादा कड़क



 
सरकार  तो झुकती है-झुकाने वाला  चाहिए,
लुटेरा नहीं, देश चलाने वाला नेता चाहिए।
हर घर, हर सूबे को अब अन्ना चाहिए।।

 


गांधी की टोपी अब अन्ना के सिर
देशपाल सिंह पंवार
फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है,
वातावरण सो रहा था अब आंख मलने लगा है।
 
जिस अन्ना को दिल्ली में जगह नहीं दी जा रही थी आज उसी अन्ना के लिए संसद में इतिहास का नया पन्ना लिखा गया। जो हमेशा याद रहेगा। खासकर इस पीढ़ी को जो अन्ना से पहले ना गांधीजी को समझती थी-जानती थी इस पर शक ज्यादा है। अब कम से कम वो समझ गई कि गांधी का अनुयाई अगर ऐसा है तो गांधी जी कैसे होंगे? अन्ना समर्थक और राजनीति की रोटियां पकाने वाले इसे अपनी जीत के रूप में देख रहे हैं, बोल रहे हैं। पर क्या वास्तव में ये जीत है? जीत है तो किस पर? करप्शन पर-वो तो मिटा नहीं। वक्त लगेगा। खुदा करे इस लोकपाल बिल के सहारे अन्ना का दावा सही साबित हो। करप्ट नेताओं पर-वो तो ज्यों के त्यों हैं। सांसदों पर-अगर वो गलत थे तो किसने चुने? उसी जनता ने जिसे अन्ना एंड पार्टी अपना समर्थक बता रही है। कांग्रेस पर-अगर हां तो क्या यही मकसद था? संसद पर-अगर उस पर जीत की बात की जाती है तो फिर बचता क्या है? संविधान पर-क्या यह मान लिया जाए? फिर लंोकतंत्र कहां रहा?
ये दिन किसी की जीत से ज्यादा गलती सुधारने के नाते याद किया जाना चाहिए। गलती-जिसकी वजह से करप्शन पनपा। गलती-जिसकी वजह से करप्शन कदापि कोई मुद्दा नहीं बना। गलती-जो कांग्रेस ने रामदेव के साथ की थी। गलती-जो सिब्बल एंड पार्टी ने मखौल बनाकर की। मनीष तिवारी एंड पार्टी ने की। गलती-जो कांग्रेस ने अन्ना को दिल्ली में अनशन की जगह ना देकर की। गलती - जो कांग्रेस ने अन्ना को तिहाड़ में डालकर की । गलती - जो मनमोहन सिंह और  उनकी टीम ने लगातार मास की फीलिंग को समझने में की। गलती-जो आखिर तक सत्ता के आगे पत्ता नहीं हिलता की सोच के सहारे लगातार करने की कोशिश की गई। गलतियां तो बहुत हुई पर गतानु गतिको लोक के इस देश में उन गलतियों की ओर ध्यान देने की कोई जरूरत महसूस नही करेगा। कम से कम फिलहाल। पर सत्ता की ओर से की गई सारी गलतियां समय रहते सुधर गई चाहे इसे कोई अपनी जीत माने या दूसरों की हार । इससे ज्यादा राहत की बात ये कि चाहत पूरी होती दिखाई दी। वरना जो हालात बनते जा रहे थे उसमें आजादी की दूसरी लड़ाई वास्तव में लड़ाई का अखाड़ा बनने की ओर अग्रसर होती नजर आ रही थी।
जीत हुई पर लोकतंत्र की। यह साबित हुआ कि अनशन के सहारे-जनबल के सहारे - गांधी के सहारे- शांति के सहारे अपनी मांगे मनवाई जा सकती है। ये लोकतंत्र की मजबूती का संकेत है। खैरियत है शांति से सब कुछ सही तरीके से निपट गया। जब पड़ौस और दुनिया में सारे देश जल रहे हों ऐसे में उनसे कहीं ज्यादा बड़े समुदाय ने अगर अहिंसा से अपनी बात मनवा ली है तो आज सारी दुनिया में हिंदुस्तान की धाक और ज्यादा जम गई होगी। सब हैरत में होंगे और अन्ना सही कहते थे कि सारी दुनिया सबक लेगी। ये जीत है ईमानदारी की-क्रेडिट चाहे जो ले पर हकीकत यही है कि सिर्फ अन्ना और सिर्फ अन्ना के नाम के सहारे ये सब कुछ हुआ। मकसद सही था। आदमी सही था। घर के बढ़े बुजुर्ग की छवि सबको नजर आ रही थी। आंदोलन के तरीकों की खामियों और खूबियों पर मंथन तो चलता ही रहेगा।
ये साबित हो गया कि कानून से चलन नहीं होता। चलन से कानून बनता है। ये साबित हो गया कि सच कदापि हारता नहीं है। ये साबित हो गया कि ईमानदारी का मोल है। मजबूत बोल है। ये साबित हो गया कि ब्रांड के पीछे पागल इस देश में असली और सबसे मजबूत ब्रांड जनता बनाती है। कोरपोरेट सेक्टर या मल्टीनेशनल कंपनियां और उनके करोड़ों लेने वाले गुरू नहीं। क्या इस सेक्टर के दिग्गजों को इससे सबक नहीं सीखना चाहिए? समझ जाना चाहिए कि लैपटाप से नहीं जमीन से ब्रांड बनते हैं।  आज सबसे बड़ा ब्रांड अन्ना हैं। बशर्ते कि उनकी सलाहकार समिति इस ब्रांड की वैल्यू को आगे दांव पर ना लगाए क्योंकि उस तिकड़ी में सारे बेहद महत्वाकांक्षी हैं। वो सब अन्ना नहीं हैं ना सोच से और ना व्यवहार से। इसे जीत मानकर वो मुगालता पाल सकते हैं। ये अन्ना जानते हैं-जानती तो जनता तक है पर वो यहां तिकड़ी के कारण नहीं,अन्ना के कारण जुटी। करप्शन का रोग जड़ से मिटाने के गुस्से और परेशानी के कारण जुटी। वो अन्ना के पीछे है। पीछे आज सारा देश है। गांधी जी के साथ तीन थे और यहां यही फिगर रही। पर उनमें तथा इनमें काफी अंतर है। वे ना बुरा बोलते थे। ना देखते थे। ना सुनते थे। पर अन्ना के तीनों बोलते हैं, देखते हैं, सुनते हैं। मनमर्जी की राह चुनते हैं।
आंदोलन के कुछ और पहलू बेहद दिलचस्प रहे। जिस गांधी टोपी को सब बिसरा चुके थे। सिर से हटा चुके थे। वो फिर आई और उन सिरों पर आई जिनकी जुल्फें हाथ लगाने से खराब हो जाया करती थी। तो क्या ये मान लिया जाए कि अब ये युवा पीढ़ी गांधी टोपी का महत्व समझ चुकी है। वरना हकीकत तो ये है कि वो 60 से ऊपर की जीती जागती पीढ़ी को ही कबूल करने को तैयार नहीं थी। पर उसकी समझ में अब आ गया होगा कि उम्रदराज आदमी कितना महत्वपूर्ण होता है। चाहे वो अनपढ़ ही क्यों ना हो। ईमानदारी और सदा आचरण क्या मायने   रखता है ? अब क्या अन्ना के सारे समर्थक ना करप्शन करेंगे और ना ही करप्शन होने देंगे?
ये जरूर है कि अब वो गांधी टोपी से ज्यादा अन्ना टोपी कहलाएगी। कितना अच्छा होता कि उस पर एक तरफ ये लिखा होता कि मैं अन्ना हूं और दूसरी तरफ होता-मैं गांधी हूं। ऐसा होता तो जो जमात दारू पीकर हंगामा करती नजर आई शायद दो बार सोचती। आज सारा देश अन्नामय है। उनके मुद्दे के साथ है। पर जरूरी है अन्नामय होना। हां जो तिकड़ी के बारे में कुछ बोल रहा है उसे अन्ना विरोधी बताया जा रहा है।  करप्टेड कहा जा रहा है। माना जा रहा है। जो उनकी बोली बोल रहा है, नारे लगा रहा है उसे ईमानदारी का तमगा दिया जा रहा है। यानि इधर उनका नाम लोगे और उधर आपको अच्छे चरित्र का प्रमाण मिल जाएगा। गंगा पाप धोती है। अन्ना का आंदोलन करप्शन के दाग धो डालता है। यही दर्शाने और उकसाने की लगातार कोशिश तिकड़ी ने की क्या ये सही है? अगर सारा देश अन्ना के पीछे है तो फिर करप्ट लोग कहां हैं? कौन हैं? इस सवाल का जवाब तो जल्दी ही तिकड़ी को देना होगा।
इस आंदोलन में तिरंगा इतना लहराया गया और सारे नियमों को तोड़कर लहराया गया कि शायद ही आजादी के बाद सारे 15 अगस्त व 26 जनवरी को लहराया होगा। हर हाथ में तिरंगा। मंच से किरण बेदी का तिरंगा लहराने का अंदाज क्या सही था पर क्राउड उनके पीछे थी तो कौन टोकता? हर युवा जो तिरंगा लहराता रहा, जो देशवासी देखता रहा क्या अब इस तिरंगे का हमेशा असली मोल समझेगा? ये हमारी आन-बान व शान का प्रतीक है। अपने मान का प्रतीक हमें इसे मान लेना चाहिए। खासकर समय रहते। ताकि तिरंगा हर देश के झंडे से ऊपर नजर आए। आज संसद में सबके निशाने पर सबसे ज्यादा मीडिया रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि मीडिया का काम है जो सामने घट रहा है उसे ज्यों का त्यों रखना। पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इंडियन मीडिया अरसे से जज का रोल प्ले करने का ढोल पीटने लगा है। यही सबसे बड़ी दिक्कत इस देश को आने वाले वक्त में उठानी पड़ेगी ये तय है। कोई माने या ना माने पर अन्ना के आंदोलन की सफलता में आधे से ज्यादा योगदान मीडिया का ही था। हर बात या बेबात को दिन हो या रात इस तरह से पेश किया गया कि जैसे सब कुछ हो गया है या कुछ नहीं होने वाला है। जिन बच्चों को ढंग से एबीसीडी नहीं आती उनसे अन्ना और करप्शन तथा सरकार के बारे में ऐसी बातें बुलवाई गई जो साफ झलक रहा था कि पहले पढ़ाई गईं होंगी। वैसे ये पहलू अलग है कि जो मीडिया राजनेताओं से ज्यादा आम आदमी को हीरो बनाने की कोशिश करेगा तो उससे सुनना तो पड़ेगा ही पर आज जरूरत इस बात की है कि मीडिया के मोल व रोल पर चर्चा और बहस संसद और संसद के बाहर ऐसी ही होनी चाहिए जैसी आज अन्ना के मसले पर हुई।
रामलीला मैदान ने फिर इतिहास रच दिया है। आखिर रामलीला मैदान के आंदोलन सफल क्यों होते हैं? क्या राम की लीला के कारण? जिनकी नजर राम का नाम सांप्रदायिकता से जोड़ देती है क्या उन्हें अब तक इसका ख्याल नहीं आया? या उनकी नजर में इस मैदान की कोई अहमियत नहीं। पूरे आंदोलन में सड़क व संसद की जद्दोजहद में ये बताने की जरूरत नहीं कि कौन आगे रहा और कौन पीछे? हां अब राजनेताओं को समझ जाना चाहिए कि जनता की सड़क का वो ख्याल रखें।  जनता से राजनीति की संवादहीनता, अकर्मण्यता और उपेक्षा से पैदा ये स्थिति क्या अब यहीं खत्म होगी? क्या आगे ऐसी स्थिति नहीं आएगी? क्या राजनेताओं और राजनीतिक दलों को इससे सबक नहीं सीखना चाहिए? क्या उन्हें ये एहसास अब तक नहीं हुआ है कि जनता अब अपनी पीड़ा दबाने को तैयार नहीं। राजनीति के धुरंधरों को अब ये समझ लेना चाहिए कि लच्छेदार बातों से जनता को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। ये दिन लद चुके हैं। अगर जनहित से  जुड़े मसलों का कोई जल्दी हल नहीं निकाला गया तो गांधी और अन्ना का ये देश गोली की बोली बोलने के लिए कम मशहूर नहीं है। सवाल ये और बड़ा है कि क्या अब हर बात मनवाने को इसी तरह का रास्ता नहीं अपनाया जाएगा?
फिलहाल अंत सही तो सब सही।  पर क्या इस आंदोलन का अंत हो गया है? शायद नहीं।  पता आगे चलेगा। खासकर जब ये बिल इधर से उधर लटकेगा। तब फिर ये अन्ना की आंख में फिर अटकेगा। हां समय की नजाकत ये कह रही है कि अब सोचना कांग्रेस को ज्यादा पड़ेगा क्योंकि करप्शन के इस इश्यू पर उसने ही सबसे ज्यादा खोया है। ताज्जुब है कि थिंक टैंक के मामले में इतनी खराब स्थिति में कांग्रेस कैसे पहुंच गई? अगर जनलोकपाल बिल को ज्यों का त्यों वो सदन में रख देती तो हर बात में शक करने वाला विपक्ष या कहा जाए बीजेपी उसे आसानी से पास होने देती? तब सारा ठींकरा उस पर और बाकी लालू यादव व मुलायम सिंह यादव जैसों पर फूटता। पर इसे ही कहते हैं सत्ता का घमंड। आ अन्ना मुझे मार। जब मार दिया तो तमाम बातें की जाएंगी। सोनिया की गैर मौजूदगी में कांग्रेस की नांव ऐसी डूबी कि अब उसे फिर से सत्ता की धारा में दौड़ाना आसान काम नहीं होगा। हर कोई मान रहा है कि कांग्रेस को इस राह पर ले जाने वाले कम से कम मास के नेता तो नहीं हैं।  अगर होते तो ऐसी सलाह ना देते। क्या कांग्रेस ऐसे सलाहकारों से पीछा छुड़ाएगी? सवाल तो सबसे ज्यादा मनमोहन सिंह की कप्तानी पर दागे जा रहे हैं। सब तरफ से। वो कम बोलते हैं पर   इस मसले पर वो कहीं पीएम नजर नहीं आए। यही इस संकट के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण रहा। लाख ईमानदार हों पर उनकी कप्तानी अब खतरे में है। सत्ता हनक से चलती है। ठसक से चलती है। दमक से चलती है। लचक से चलती है पर यहां तो कुछ दिखा ही नहीं। ज्यादा मौन से चरित्र की खूबियां गौण नजर आने लगती हैं पर ये बात मनमोहन सिंह को कौन समझाएगा? इतिहास को सिखाया नहीं जा सकता हां सीखा जरूर जा सकता है तो क्या खुद को परफेक्ट मानने वाले इस फैक्ट को मानेंगे? इस पर चलेंगे?
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को,
सब अपनी-अपनी हथेली जलाके बैठ गए।