Saturday, November 27, 2010

लटका हाथ

देशपाल सिंह पंवार
ना मैडम का जादू चला- ना युवराज का। ना पीएम मन मोह पाए। ना दूसरे कांग्रेसी मतदाता टोह पाए। ये तो कांग्रेसी भी मानते थे कि वे सत्ता में नहीं आएंगे पर वे ये नहीं जानते थे कि भद इस कदर पिटेगी । पार्टी पूरी तरह मिटेगी। पिछला इतिहास भी नहीं दोहराया जा सका। पार्टी सारी सीटों पर लड़ी पर डबल फिगर में नहीं जा पाई। ये फजीहत तब हुई जब राहुल गांधी खुद कमान संभाले हुए थे। ऐसे में मुंह नहीं दिखाना चाहिए था राहुल को- पर अब छिपते नजर आ रहे हैं बड़ी-बड़ी बात करने वाले कांग्रेसी। स्टेट लीडरशिप पर सवाल उठने लगे हैं। ये लीडरशिप सबको लपेटे में लेने लगी है। जनता के हाथों टूटे हाथ को अभी अंदरूनी भी तमाम झटके लगेंगे। हार के असली कारण तक जाने की बातें भी होंगी कुछ लोगों को ये जिम्मा सौंपा भी जाएगा। रिपोर्ट भी आएंगी पर इस समय सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर ये दुर्गत क्यों हुई? कई कारण हैं। पहला ऐन टिकट बंटवारे के वक्त बाहुबलियों, दागियों और रिजेक्टेड नेताओं को दल में प्रवेश देना। उनकी मनमानी को पूरा करना। यूथ से किनारा करना। टिकट बंटवारे में हर पल फैसला बदलना। मजबूत चेहरों की बजाय कमजोर और पैसे वालों को आगे करना। इससे कट्टर कांग्रेसियों में निराशा पैदा हुई। यूथ कांग्रेस की ताकत बन सकता था पर उसे ठेंगा दिखा दिया गया। वो ऐन चुनाव के वक्त ठगा से रह गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जब घर में रोशनी के दिन आने वाले थे तो क्यों लीडर घर और हाथ को खुद ही जलाने पर तुले थे? चुनाव प्रचार में भी कांग्रेसी हल्के साबित हुए। दिल्ली से या दूसरे राज्यों से जब नेता आते थे तो लगता था कि हां कांग्रेस लड़ रही है पर उनके ना रहने पर कहीं नजर नहीं आता था कि कांग्रेस भी इस बार मैदान में है। सबसे बड़ा हार का कारण यही है कि बिहार में कांग्रेस के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिस पर जनता यक्किन कर सके। जिसके पीछे सारे कांग्रेसी खड़े हो सकें। अगर कोई चेहरा होता तो शायद राहुल फैक्टर काम करता। पर कांग्रेस आयातित चेहरों के आधार पर बिहार की जंग जीतना चाहती थी जो हो नहीं सकता। कम से कम बिहार में तो नहीं। राहुल गांधी फैक्टर की हवा खुद कांग्रेसियों ने ही निकाली। अगर इस बार कांग्रेस यूथ को ज्यादा मैदान में रखती तो अभी भले ही सफलता ना मिलती पर शायद 2014 और 15 तक बिहार में कांग्रेस के पास 2-4 चेहरे ऐसे जरूर होते पर ऐसा हो नहीं सका। या कांग्रेस के थिंक टैंक ने करना नहीं चाहा। बिहार के कांग्रेसी इसी तरह बिहेव करते रहे जैसे बस चलने वाली हों और कंडक्टर व ड्राईवर हर किसी को लेकर यही कह रहे हों कि इसे भी बैठा लो। नतीजा बस ऐसी पंचर हो गई कि जितना चलती तो वो भी रास्ता नहीं नाप पाई। कांग्रेस के लिए यह केवल सीटों की हार नहीं है बल्कि बिहार में भीविष्य में खड़ा होने का सुनहरी मौका भी उसने गंवा दिया है। दरबार में नतमस्तक और हुक्म की गुलाम कांग्रेसियों की भीड़ अब दिल्ली का सड़कों पर उतनी नजर नहीं आएगी। वो सीन भी अब शायद ही कभी बिहार में दोहराया जा सकेगा जो टिकट पाने के वक्त पटना से दिल्ली तक कांग्रेसी मुख्यालय और नेताओं के घरों के बाहर तथा अंदर होता था। 243 सीटों पर 10 हजार से ज्यादा दावेदार देखकर सब मान रहे थे कि कांग्रेस कुछ करेगी पर अब तो शायद 10 हजार लोग बिहार में जुटाने में कांग्रेस को पसीने छूट जाएंगे। कांग्रेस नाम अगर बिहार में जिंदा रखना है तो कोई ना कोई दमदार नेता तो कांग्रेस को इस धरती पर पैदा करना ही होगा। लाख टके का सवाल ये भी है कि अब उन नेताओं का क्या होगा जो अपने दल छोड़कर वहां गए थे? उनका क्या होगा जिन्होंने टिकट बांटे थे? उन बाहुबली परिवारों का क्या होगा जो पास होने की आस में वहां झंडा उठाने गए। दल-बदलुओं और परिवारवाद के रहनुमाओं की बिहार की जनता ने रीढ़ की हड्डी ही तोड़ डाली है। पर इतिहास गवाह है कि कांग्रेसी बचने का रास्ता जरूर खोज लेंगे। उनका तर्क अब यही होगा कि जब लालू और पासवान साफ हो गए तो हमारी क्या हैसियत? वो हैसियत तो अब राहुल की भी नहीं रही। वो बार्गेनिंग की स्थिति तो कांग्रेस की भी नहीं रही। बंगाल और दूसरे राज्यों में चुनाव के वक्त साझीदारों से समझौते के वक्त हाथ अब उतना सख्त तो नहीं रह पाएगा ये तय है। तय तो ये भी है कि अब इस दल में एक दूजे की टांग खींची जाएंगी। महबूब अब किसी के महबूब नहीं रहेंगे। बहुतेरों को जाना तो होगा। कुछ मर्जी से जाएंगे कुछ हटाए जाएंगे। भागदड़ मचेगी ये तो तय है। कांग्रेस के पास अब केवल यही विकल्प बचा है कि वो नेता तैयार करे। पासवान के पास पार्टी नहीं बची और कांग्रेस के पास नेता तो क्या पासवान बिहार में कांग्रेस की कमान थाम सकते हैं? अभी ये असंभीव दिख सकता है पर राजनीति में कब क्या हो जाए कौन जानता है? ना काहूं से दोस्ती-ना काहूं से बैर।

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