Tuesday, November 23, 2010

आ रही सरकार

जा रहा है इंतजार। आ रही है सरकार। दिखेगा आज जनमत का सार। कहीं उमड़ेगा प्यार-कंही होगा तक रार। किसी का होगा बेड़ा पार- कोई होगा शर्मसार। तो हो जाओ तैयार-वोट लेने वाले भी-नोट देने वाले भी-गोठ बिठाने वाले भी-लोट पोट होने वाले भी, चोट देने वाले भी-खोट खाने व निकालने वाले भी। मीडिया वाले भी। आंख धुलेंगी-मशीन खुलेंगी। सशरीर सारे नेता काउंटिंग सेंटर पर होंगे पर दिमाग आउट आफ सेंटर होंगे। दिल में भगवन से होगी आस-मास की परीक्षा में कराएंगे पास। नहीं आ रहा कुछ रास-बस बैचेनी का ही वास। जीत पर प्रीत और हार पर संत्रास। नींद गायब, दिल-बिल बेकाबू, विल में ह्रास। गद्दी की राह की ये चाह शरीर और हौसलों की सारी थाह की कुछ ही पल में ऐसी परीक्षा लेगी कि बड़े-बड़े पिछड़ते-हिलते-डुलते-गिरते-पड़ते-बिलखते-निकलते-दुबकते नजर आएंगे। बाकी सब एक्सपर्ट भी टी वी पर चिपकेंगे। गलत हुए तो बीवी पर बरसेंगे-घर वालों पर बिदकेगे। नाश्ते का वक्त होगा। कोई मस्त तो कोई पस्त होगा। हम भी आशावादी हैं पर लाख टके का सवाल यही है कि आज वो कहां होगा जिसके नाम पर ये सारा मेला इस धरा पर भरा? क्या अब वो डरा और मरा दिखाई नहीं देगा? क्या इवीएम के अलावा वो कहीं कि सी सीन में होगा? आज किसी को भी मिले ताज पर क्या वास्तव में जनमत का ही होगा राज? उसका ही होगा साज? सबको उस पर ही होगा नाज? वो दौर कब आएगा जब उसका होगा कोई काज ? या वो सिर्फ झेलने को बना है बाज की गाज? हम जनता के सपने दिखा रहे हैं। महज ५० फीसदी मतदान पर इतरा रहे हैं। तालियां बजा रहे हैं। क्या आधी आबादी के मतदान को पूर्ण जनमत माना जाए? २-४ फीसदी के अंतर से ना जानें केतने दागी-अनपढ़ सदन में जाएंगे, माननीय क हलाएंगे। सरकार चलाएंगे-जनता को टहलाएंगे। क्या यही गरीब बंदों के असली नुमाइंदे होंगे? शायद नहीं। क्या ये महज नेताओं की परीक्षा की घड़ी है? क्या जनता इस दायरे में नहीं आती? क्या मीडिया इस दायरे में नहीं आता? जनता अगर ५० फीसदी मतदान के प्रति जागरु· हो गई है तो क्या मीडिया ५० फीसदी भी पत्रकारिता के सिद्धांतों की राह पर है? लोकतंत्र में अगर जनता को ही राज-ताज का मालिक बनाया गया है तो फिर मीडिया को ये अधिकार की सने दिया के वे जनता के हक पर डाले। एक्जिट पोल के ढोल में जो चाहे बोल बोले। पाबंदी से ज्यादा ये सब बहस के मुद्दे हैं। आत्म मंथन के मसले हैं। जब तक सब चुनाव की परीक्षा के रूप में नहीं देखेंगे-नहीं लेंगे-नहीं मानेंगे तब तक बुरा और अच्छा राज तो कहलाता रहेगा पर जनता राज हकीकत से दूर ही नजर आएगा। खैर हिंदी और अंग्रेजी के बीच आज संख्या का दिन होगा। जिसकी नेताओं को भी जरूरत है। दलों को भी जरूरत है। मीडिया को भी जरूरत है। पर सबसे ज्यादा जरूरत है जनता को । जो भी आज राज में आए -ताज पहने काश इस संख्या (जनहित की अर्थनीति) का काज वो पांच साल लगातार करता जाए तो हमारे बिहार जैसा कोई नहीं होगा। उस जैसा राजा कोई नहीं क हलाएगा। उस जैसा राज ही जनता का राज कहलाएगा। वैसे तो राजनेता मानते नहीं-सुनते नहीं पर यही कहना है की जीत पर इतराना मत-हार पर खिसियाना मत। यही खेल भावना है। यही जनभावना है।

दौर

किस्मत कमबख्त
वक्त बेहद सख्त
धराशाई दरख्त
डकेत बड़े भक्त
बे मोल है रक्त.