Saturday, November 27, 2010

बंगला अब कंगला

देशपाल सिंह पंवार
पुरानी कहावत है कि दो सांडों के बीच झुंड का नुकसान। यही हालत लोजपा की है। रामविलास पासवान की है। इससे ज्यादा के वो हकदार थे। उन्हें मिलती पर लालू और नीतीश के बीच में पिस गए। यानि चले थे हरि भजन को ओटन लगे कपास। 2005 फरवरी में वो 12 फीसदी से ज्यादा मतों के आधार पर 29 सीटें जीते थे। फिर नवंबर में मतप्रतिशत तो कम घटा पर सीटे आधी से कम ही रह गईं यानि कुल मिलाकर दस। इस बार लगभगा सूपड़ा ही साफ हो गया। हां सदन में कहने को तीन चेहरे जरूर दिखेंगे वो तब तक जब तक सत्ता पक्ष की निगाह उन पर नहीं जाएगी। आखिर ऐसा क्यों हुआ? कारण तो इस पार्टी के मुखिया खुद तलाशेंगे या उनके सलाहकार उन्हें हमेशा की तरह भरम मैं रखेंगे.पर यह हालत ना तो इस चुनाव की देन है और ना ही हाल-फिलहाल के किसी फैसले की। उन्हें सबसे ज्यादा सीटें कब मिली थी जब उन्होंने खुलकर लालू का विरोध किया था। जिस लालू के विरोध पर उन्होंने पार्टी को खड़ा किया उसी लालू के साथ हाथ मिलाने का नतीजा उन्होंने लोकसभा चुनाव में भी उठाया। अब फिर झेला। तब वो खुद की सीट हारे थे पर इस बार वो राजनीति का मैदान ही हारते नजर आ रहे हैं। कागज पर अपना और लालू का प्रतिशत बेहतर नजर आ सकता था पर धरातल पर उसके क्या खामियाजे उठाने पड़ सकते हैं इसके बारे में ना तो उन्होंने संसदीय चुनाव के वक्त सोचा और ना ही अब। साफ साबित हो गया है कि दोनों दल तो मिले पर उनके वोटरों के दिल नहीं मिले। नतीजों से तो ये तक लगने लगा है कि पिछली बार उपचुनाव में जीत के पीछे कहीं ना कहीं नीतीश कुमार का दिमाग भी रहा होगा। वे शायद इन दोनों को फील गुड में रखना चाहते होंगे ताकि दोनों अलग होकर नहीं साथ मिलकर चुनाव लड़ें। इनके अलग होने से जितना नुकसान लालू का होता उससे कहीं ज्यादा का खतरा नीतीश को रहा होगा। शायद जो उन्होंने चाहा वही हुआ। बेमेल गठजोड़ बेमोल हो गया। गठजोड़ से भी ज्यादा बड़ी गलती रामविलास पासवान ने इस बार तब की जब उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए लालू प्रसाद के नाम पर सहमति दे दी। जिस नेता के राज को बिहार की जनता 15 साल झेल चुकी हो, रग-रग से वाकिफ हो चुकी हो, जिसे गद्दी से उतार चुकी हो, उसे फिर से वो गद्दी क्यों सौंपती? वह भी उस स्थिति में जब पहले दौर में उसकी जान के लाले थे। अब रोटी के लाले हो सकते हैं पर बोटी सलामती के लाले तो नहीं हैं। यानि खुद तस्तरी में परोसकर जीत इन दोनों दिग्गजों ने नीतीश कुमार को सौंप दी। अगर रामविलास पासवान सीएम पद की रेस में अपने नाम पर लालू को राजी कर लेते तो यकीनन बिहार के नतीजे कुछ अलग ही होते। अगर ऐसा नहीं होता और चुनाव बाद ही गठजोड़ के नेता के चयन की बात होती तो भी हालत ये नहीं होती। पर होनी को कौन टाल सकता है? रामविलास पासवान तो खुद ब्रदर मोह को नहीं टाल पाए। उन्हें उपमुख्यमंत्री घोषित करने की बजाय अगर अपनी पुरानी मुस्लिम नेता की थीम को वो आगे बढ़ा देते तो भी उन्हें फायदा होता। जनता का उन पर और ज्यादा विश्वास जमता। परिवारवाद के मोह में फंसने का ठप्पा नहीं लगता। लोजपा 75 सीटों पर लड़ी। ज्यादा पर लड़ती या कम पर कोई फर्क नहीं पड़ता। पर जिस तरह सीट का बंटवारा हुआ तो शायद इस पार्टी के मुखिया ने नंबर पर तो गौर किया पर यह नहीं देखा कि उन्हें कौन सी सीटें मिली हैं? दो दर्जन ऐसी सीटें थी जहां से उनका खाता खुलना ही नहीं था। यानि राजद जहां शर्तिया हार की स्थिति में खुद को पा रहा था वो सीटें रामविलास पासवान को जातिगत समीकरण के आधार पर दे दी गईं। नेताओं के अंदरूनी झगड़ों जैसी कोई बात इस पार्टी में ज्यादा कदापि नहीं रही। इसी कारण टिकट बंटवारे में अगर कुछ सामने आया तो केवल परिवारवाद। पर अंदरूनी इस पर कोई विवाद नहीं था। यह मीडिया की देन तक ही सीमित रहा क्योंकि इस चुनाव में कोई ऐसा नहीं बचा जो इस रोग से बच पाया हो। आखिर शतरंज के जानकार इस नेता को एक बात क्यों समझ में नहीं आई कि लालू प्रसाद का हाथ जिसने थामा वो कहीं का नहीं रहा। लालू से दोस्ती से पहले वामदल किस स्थिति में थे, अब कहां हैं? कांग्रेस कहां थी, अब कहां है? लोजपा कहां थी अब कहां है? सबसे बड़ा सवाल अब यही है कि किया क्या जाए? अलग रास्ते नापे जाएं। या फिर कुछ और। अलग-अलग होकर कांग्रेस-लोजपा और राजद तीनों बिहार में खत्म हो चुके हैं। क्या अब फिर हाथ मिलाने का समय आ गया है? यह जरूरत भी दिख रही है और मजबूरी भी.पासवान को अब यह भी तय करना होगा कि वे बिहार के नेता बनकर राजनीति की पारी खेलना चाहते हैं या देश के नेता बनकर राजनीति के पिच पर बोल्ड होना चाहते हैं। उन्हें यह जरूर समझना होगा कि बंगले में दूसरा कोई ऐसा नहीं जो रहने लायक हो, उसकी रखवाली तक करने लायक हो।

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