Friday, August 26, 2011

अन्ना का कमाल-मेरा सवाल


 ये करप्शन का जाल है।
 खास के पास माल है।
 मास बेचारा कंगाल है।
सबका सूखा गाल है।।

सत्ता की मोटी खाल है।
विपक्ष की खोटी चाल है।
हाकिम की गोटी लाल है।
खादिम बिन रोटी बेहाल है।।

अन्ना गरीब की ढाल हैं।
अब सबको रहे पाल हैं।
 पर सबके उड रहे बाल हैं।
अब अच्छे नहीं हाल हैं।।

अगर सारा देश अन्ना की आवाज पर लाल है। एक पुकार पर सब हुंकार लगा रहे हैं तो इस बात की क्या गारंटी है कि नारे लगाने वाले सारे दूध के धुले अन्ना के प्यारे हैं? यानि करप्ट नहीं हैं? इस बात के चांस ज्यादा हैं कि कोई करप्ट ना कह दे इस वजह से हो सकता है कि दागी चेहरे ज्यादा डांस में मस्त हों। सब अन्नामय हों। अगर ऐसा है तो फिर कैसे माना जाए कि अन्ना संग सब सही-जो वे कहे सब सही-बाकी कुछ नहीं। खुदा करे कि अन्ना के आंदोलन के संग कोई करप्ट ना हो। अगर ऐसा है तो फिर अन्ना के साथ सारा देश कैसे हो सकता है? करप्ट कहां जाएंगे?  अगर अन्ना एंड पार्टी ये मानती है कि सारा देश उनके साथ है तो फिर करप्शन रहा कहां? फिर कैसी लड़ाई? अगर नहीं तो फिर मंच से अहिंसा के साथ-साथ अन्ना और उनकी टीम ये जरूर कहे कि जो सही है , जो करप्ट नहीं है, जिसने कदापि कोई पाप नहीं किया है,वही यहां आए-मेरे संग करप्शन विरोधी गीत गाए-नया हिंदुस्तान बनाए। अगर सबने जमीर की बात सुनी और बाल्मीकि बनने की राह अपनाई तो ..। हकीकत ये है कि क्राउड की चाह की राह पर करप्ट और गैर करप्ट की थाह पाने का कोई पैमाना कम से कम ऐसे मूवमेंट के दौरान किसी के पास नहीं होता। अन्ना करप्शन के खिलाफ सबसे बड़े ब्रांड हैं और उनकी टीम के पास अन्ना हैं। या कहा जाए सबके पास अन्ना हैं। जिनके पास अन्ना नहीं वे देशप्रेमी नहीं।
कुछ सवाल
मैं अन्ना की मांग के फेवर में बोलंू ,जमकर मुंह खोलूं तो असली हिंदुस्तानी कहलाऊंगा। सही व्यक्ति कहलाऊंगा। ईमानदार कहलाऊंगा। अगर चुप रहा तो करप्ट कहलाऊंगा। खिलाफ बोलूं तो कांग्रेसी कहलाऊंगा। क्या करूं? मैं इस फेवर में हूं कि करप्शन ना रहे। मैं इस फेवर में हूं कि  एक मजबूत लोकपाल बिल बनें। जो अन्ना चाहते हैं वो सब उसमें हो पर जब मामला हठ में बदल जाए और उसकी रट से देश पट होता नजर आए तो फिर क्या किया जाए? अब मांग से ज्यादा हठ झलकने लगी है। जो सही नहीं। कम से कम मेरे हिसाब से। ईश्वर ना करे अन्ना को कुछ हो, अगर अन्ना को कुछ हो गया तो कौन जिम्मेदार होगा? कांग्रेस, मनमोहन सरकार या फिर सिविल सोसायटी? अगर कांग्रेस और सरकार दोषी होगी तो क्या हजारे के पंज प्यारे इससे बच पाएंगे? फिर  इस बात की गारंटी कौन लेगा कि कहीं कोई हिंसा नहीं होगी? क्या किरण बेदी, केजरीवाल और स्वामी जी कहीं नजर आएंगे?

दिल्ली करो रन

अन्ना ने हमारे वास्ते ही तो छोड़ा है अन, 
पर आज तक घर में ही बैठे हैं सारे जन।
क्या नहीं तड़पते हैं कुछ करने को मन,
कम से कम अब तो एक बार जाओ तन।
तो करप्शन के वास्ते दिल्ली करो रन,
...अब इतने खुदगर्ज तो ना जाओं बन।
इस जंग को ना समझो कोई फन,
वरना और तनेगी करप्शन की गन।

Wednesday, June 15, 2011

नेहरू राज में ही बज गया था करप्शन का साज


  

देशपाल सिंह पंवार
यूं भूखा होना कोई बुरी बात नहीं है, दुनिया में सब भूखे होते हैं,
कोई अधिकार और लिप्सा का,कोई प्रतिष्ठा का,कोई आदर्शों का,
और कोई धन का भूखा होता है,ऐसे लोग अहिंसक कहलाते हैं,
  मास नहीं खाते, मुद्रा खाते हैं-दुष्यंत कुमार
  चौतरफा घपलों-घोटालों का दौर है। तमाम चोर के  विदेश में जमा काले धन का शोर है। कोई सियासतदां करता नहीं गौर है। जनता बोर है। छिन रहा कोर है। दिखता नहीं कोई छोर है। कहीं नहीं कोई ठौर है। अब बसंत की नहीं भोर है। मस्ती में नाचता नहीं मोर है। हिंदुस्तान पर घटा घनघोर है। लोकतंत्र का दुखता हर पोर है।  पता नहीं, कौन-कौन, किस जगह, किस तरह, लूट की वजह से  सराबोर है .हर पल सुनहरा कल इस गंदे जल की दलदल में फंसता जा रहा है। धंसता जा रहा है। पूरा देश ही इसमें बसता जा रहा है। आम जन मरता जा रहा है। जमाखोर-घूसखोर-सूदखोर-धनखोर हंसता जा रहा है। लोकतंत्र डरता जा रहा है। 
 हर नींव के नीचे घपला-घोटाला दफ्न है। जहां हाथ लगाओ-वहां करप्शन। जहां काली कमाई-वहां जश्न-सब मग्न। जो झेलता है वो कफ्न तक तरस जाता है। संत्री से मंत्री तक, बाबू से अफसर तक जिसका जहां दांव बैठ रहा है वो करप्शन की नाव में जनता लोकतंत्र को घाव ही देता जा रहा है। गांव की छांव तक करप्शन की कांव-कांव गूंज रही है। अब तो कहा जाने लगा है,माना जाने लगा है कि बस वही सही है जिसकी कोई हैसियत नहीं है। सबकी ऐसी कैफियत है सौ फीसदी ऐसा मानने को फिलहाल दिल नहीं करता। तमाम ऐसे जरूर हैं जो इस राह पर नहीं है। इसी कारण ये देश चल रहा है। माना तमाम क्षेत्रों में हमने बेथाह तरक्की की पर इस कड़वे सच से कौन इंकार कर सकता है कि इस देश में जनता कंगाल-नेता अफसर मालामाल हैं। 1971 में गरीबी हटाओ का नारा लगाया गया-किसकी गरीबी हटी-जनता की, घूसखोर नेताओं करप्ट अफसरों की या धंधेबाजों की? सब सामने है। तमाम के वास्ते राजनीति जनसेवा की जगह मेवा कमाने का जरिया बन गई है। हर बार राज्यों से लेकर संसद तक ना जाने कितने दागी, घूसखोर हत्यारे डुगडुगी पीटते नजर आते हैं। जीतने को हर हथकंडा अपनाते हैं। दो पैसा लुटाते हैं और फिर हजारों कमाते हैं। अब तौ आए दिन करप्शन के किस्सों ने राजनीति लोकतंत्र के मायने ही बदल दिए हैं।  
           वैसे ये रोग आज का नहीं है। जब आबादी को आजादी मिली थी, तोहफे में बरबादी भी मिली थी। वह भी तब जब  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1937 में ही करप्शन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया था। उनका मानना था कि करप्शन की दीमक एक दिन सारे देश को चाट जाएगी। इसी कारण वे चाहते थे कि जब देश आजाद हो तो सामाजिक क्रांति के सहारे हर घर आबाद हो। बापू अच्छी तरह जानते थे कि जिन हाथों में सत्ता जाएगी, उनमें से ढेरों ऐसे हैं जो  इस राह पर जाएंगे। इसी कारण वे हमेशा करप्शन पर सब कांग्रेसी नेताओं को आगाह करते रहते थे। पर बापू के जाते ही तमाम कांग्रेसी उनके अनमोल वचन का गबन कर गए। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समय में करप्शन की जो घुन लगी-सरदार मनमोहन सिंह के समय में उसकी धुन पर अब  देश के सारे चुन-मुन तक थिरकते नजर रहे हैं। आजादी के एक साल के अंदर यानि 1948 में पहला घोटाला सामने आया-जीप घोटाला। सेना के वास्ते जीपें खरीदी गई थीं। खास शख्स ने रोल अदा किया था। मोल-तोल हुआ था। पर कुछ दिन बाद ही पोल-खोल के बोल के ढोल पिटने लगे थे। आवाज आई-खरीद में झोल है। करप्शन के इस घोल में जीपें आईं पर घटिया और ज्यादा दाम पर। हल्ला हुआ। लंदन में तत्कालीन उच्चायुक्त वी के के मेनन इसमें फंसे। पर सियासत को खेल-खेल में खेल करने की ट्रेनिंग मिल चुकी थी। जिस पर आरोप लगे वो लंदन से हटाए गए पर नेहरू मंत्रिमंडल में जगह पा गए। सेना प्रमुख थिम्मैया को नाप दिया गया। 1955 में नेहरू जी ने घोटाले की फाइल बंद कर दी। फाइल तो बंद हो गई पर इस जीप खरीद घोटाले का खेला हमने चीन के साथ 1962 की जंग में झेला जब इन जीप की जरा सी मिट्टी-गिट्टी में सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। उस वार में हार बार-बार आज तक कचोटती रही है। हिंदुस्तान की जमीन पर आज तक चीन की बीन बज रही है। 1951 में एक और घपला सामने आया। मुदगल कांड।  फेस बचाने को नेहरू जी ने जांच के लिए एडीगोरवाला को केस सौंपा। एडीगोरवाला ने रिपोर्ट दी- नेहरू कैबिनेट के कई मंत्री और ज्यादातर अफसर करप्ट हैं। जनहित देश हित से ज्यादा वे सारे स्वहित में लीन हैं। ऐसे मंत्रियों अफसरों को हटाने की सिफारिश सरकार यानि नेहरू जी से की गई। पंडित जी हिम्मत नहीं जुटा पाए। रिपोर्ट रद्दी में गई। पर यह जरूर बता गई कि देश किस राह पर है। शायद उस वक्त  जवाहर लाल नेहरू की कोई मजबूरी रही होगी। लौहपुरुष सरदार पटेल की बेटी मणिबेन की डायरी में इसका खुलासा किया गया है। इस डायरी का फिर से प्रकाश्न एक किताब के रूप में होने जा रहा है। 16 साल तक कांग्रेस के हर कदम की साक्षी रहीं मणिबेन की किताब में लिखा गया है कि सरदार पटेल ने करप्शन के चलते रफी अहमद किदवई को हटाने की पंडित जी से गुजारिश की थी। जिसे ठुकरा दिया गया था। किदवई ने खुलेआम कहा था कि अगर उन्हें हटा दिया गया तो वे सरकार के साथ-साथ पंडित नेहरू के राज तक खोल डालेंगे। काश उस वक्त पंडित   जी सख्त हो जाते तो आज देश की तस्वीर कुछ और होती। करप्ट नेताओं अफसरों पर लगाम नहीं लग पाई। नतीजा सब बेलगाम हो गए। इसके बाद की याद बेहद कड़वी है। एक के बाद एक घपला-घोटाला। इसके अलावा हत्या समेत दूसरे तरह के तमाम आरोपों से नेता दागदार और लोकतंत्र शर्मसार होता गया। 1957-58 में मुंदड़ा डील लोकतंत्र की खाल को छील गई। मामला ढंग से बंद तक नहीं हुआ था कि 1963 में मालवीय-सिराजुद्दीन स्कैंडल ने कांग्रेस के दामन पर एक और दाग लगा दिया। 1963 में प्रताप सिंह कैरो केस बम की तरह फटा। पर किसी मंत्री या मुख्यमंत्री का कुछ नहीं बिगड़ा। ना ही किसी ने इस्तीफा दिया। सरदार पटेल सरीखे नेता चुपचाप देखते रहे। झेलते रहे। हमेशा की तरफ हर कांड के बाद कमेटी बना दी जाती थी। बिल्कुल आजकल भी ऐसा ही होता है.संथानाम कमेटी ने 1964 में रिपोर्ट दी। साफ-साफ लिखा था कि 16 साल से देश के कुछ मंत्री खुलेआम जनता का पैसा लूट रहे हैं। घूस खा रहे हैं। पर रिपोर्ट पर  कुछ नहीं हुआ। सत्ता के रिमोट ने रिपोर्ट को कोर्ट तक नहीं जाने दिया। लाल फोर्ट पर झंडा फहराया जाता रहा। करप्शन का डंडा लहराता रहा। सत्ता का पत्ता जनता को बहकाता रहा। नेहरू राज में जो रोग फैला-इंदिरा राज में ये मैला बढ़ता ही चला गया। वे पार्टी अध्यक्ष के साथ-साथ प्रधानमंत्री भी  थीं। नागरवाला को 60 लाख देने के वास्ते चाहे स्टेट बैंक में टेलीफोन करने का मसला हो या फिर फेयरफैक्स कांड।  पाइपलाइन एचडीडब्लयू सबमेरिन डील का मामला हो। घोटाले होते रहे। दबते रहे। किसी को सजा हुई हो ऐसी ना तो किसी की रजा थी और ना कजा। हम छोटे-मोटे मामलों की बात नहीं कर रहे, ऐसे तो लाखों-करोड़ों या अरबों मामले इस देश में हो चुके हैं। जिनका अता-पता ही नहीं चल पाता।  फिर मोरारजी सरकार में देश पर ऐसे ही वार हुए। राजीव गांधी आए बोफोर्स लाए। अब तक दर्द देती रही बोफोर्स डील की कील को कौन नहीं जानता? मौनी बाबा नरसिम्हा राव ने ढंग से राजपाट शुरू नहीं किया था कि 1990 में 2500 करोड़ की एयरबस खरीद में दलाली की लाली का रंग चढ़ गया। 1992 में हर्षद मेहता इस देश को शेयर बाजार में मार गए। इसके अलावा नेहरू राज की तरह राव के राज में घोटालों का साज बजा।  गोल्ड स्टार स्टील विवाद,सरकार बचाने को झारखंड मुक्ति मोरचा को हवाला से 65 करोड़ देने का केस हो या फिर 96 का यूरिया घोटाला , राजनेताओं-अफसरों और दलालों की तिकड़ी देश को चूना लगाती रही। करप्शन के गीत गाती रही। 1995 में एन एन वोहरा की रिपोर्ट आयी- देश में अपराधी गेंग, करप्ट नेताओं और अफसरों, ड्रग माफियाओं, हथियार सौदागरों के गठजोड़ की  समानातंर सरकार चल रही है। इनके इंटरनेशनल लिक हैं। लाखों रूपए खर्च होने पर जो रिपोर्ट आई वो सर्च हमेशा की तरह काम आने के बजाय फिर रद्दी की टोकरी में गया ताकि गद्दी सलामत रहे। अगर कुछ ना बिगड़ने का डर हो तो फिर कोई क्यों ना बहती गंगा में हाथ धोए। ना डर था और ना ही शर्म- नतीजा घूसखोर नेताओं की बाढ़ गई। चाहे चारा घोटाला हो या फिर तहलका कांड या तमाम स्टिंग आपरेशन में नंगे नजर आने वाले नेता। घूस की धारा और गहरी तथा चौड़ी होती गई। विधानपरिषद हो विधानसभा  या फिर संसद हर चुनाव में किस तरह पैसा बहाया जाता है, एक-एक वोट खरीदा जाता है उससे ही ये एहसास लगाया जा सकता है कि चुने जाने पर ये नेता कैसे कमाते होंगे? वीपी सिंह और चंद्रशेखर सरकार के पतन की कहानी और कारण सबको पता हैं। किस तरह नरसिम्हा राव ने 94 में तेलुगू देशम को तोड़कर, शिबु सोरेन,अजित सिंह, शंकर सिंह बाघेला को जोड़कर अपनी सरकार बचाई। कल्याण सिंह ने भी  यूपी में यही सीन दोहराया था । हरियाणा का किस्सा कौन   भूल सकता है? पूरी पार्टी ही बदल गई थी । पिछली बार मनमोहन सिंह सरकार को बचाने का वक्त याद करिए। संसद में सारी हद पार हो गई। पद के मद में कद को नेता छोटा कर बैठे। खुलेआम नोट लहराए गए। किसी का कुछ बिगड़ा? झारखंड के मधु कोड़ा को कैसे याद ना किया जाए? उसके साथ के कई मंत्री जेल में हैं। बूटा खानदान ने  भी लूटा। वो इस चौखट पर फोकट की कमाई में फंस चुका है। कोई एक हो तो कहा जाए अब तो हर रोज ये खबर मिलती है कि आज जल घोटाला, कल घोटाला, मल घोटाला,फल घोटाला, दल घोटाला, पता नहीं कैसा-कैसा घोटाला? 2010 को तो हमेशा ही घोटालों का साल कहा जाएगा? आदर्श सोसायटी, 2 जी स्पैक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल समेत दर्जनों मामलों में दौलत खाने का खेल खेला गया। सब जानते हैं। कल फिर कोई घोटाला सामने आएगा। जी को जलाएगा। तैयार रहिए।
2008 में वाशिंगटन पोस्ट ने खबर छापी थी कि हिंदुस्तान के 540 सांसदों में से एक चौथाई से ज्यादा दागी हैं। करप्ट हैं। उनके फर्ज से मुंह मोड़ने के कारण ही ये देश कर्ज के मर्ज में फंस चुका है। (पर जनता के गर्ज की अर्ज कहां दर्ज कराई जाए?)किसी राज्य का मुख्यमंत्री हो या किसी भी  राज्य के नए-पुराने नेता ज्यादातर के दामन पर करप्शन के छींटे हैं। 2005 की सीएमएस रिपोर्ट के मुताबिक 11सरकारी महकमों में 21 हजार करोड़ से ज्यादा का एक साल में लेन-देन हुआ। 2007 की रिपोर्ट के मुताबिक देश का कोई ऐसा महकमा नहीं जहां घूसखोरी ना पनप रही हो। चाहे वो बैंक हों या सेना। वाजिब काम तक घूस से। नेताओं, अफसरों से जनता बचती है तो बाबुओं के चंगुल से   नहीं निकल पाती। एक जमाने में बिहार में गरीबों का 80 फीसदी राशन चुरा लिया जाता था। पशुओं के चारे का धन तक  नेता डकार गए। इसी तरह देश के हर राज्य में गांव से शहर तक हर दफ्तर में माफिया राज नजर आता है। सड़क से शिक्षा तक, पढ़ाई से नौकरी तक, रोटी से कपड़े तक, मकान से दुकान तक हर जगह करप्शन। देश की आधी से ज्यादा आबादी घूस देने का स्वाद चख चुकी है। यह रिपोर्ट का कड़वा सार है। धंधा करने वाले पीछे नहीं हैं। घूस दो-काम कराओ और दौलत कमाओ। इसी तर्ज से वे मिनटों में काम कराते हैं। उद्योगपतियों की दौलत बढ़ने का यही मेन कारण है। पर हाँ करप्ट नेताओं की लिस्ट के वास्ते कागज कम पड़ते जा रहे हैं। ये ग्रंथ मोटा होता जा रहा है। उसके सामने आजादी का इतिहास छोटा पड़ता जा रहा है।  आम जन को जरा सी गलती पर सजा सुना दी जाती है पर देश की अदालतें नेताओं के मामलों को निपटाने में ही लगी रहती हैं। पहली बात तो कोई मामला जल्दी निपटता नहीं। अगर एक खत्म होता है तो एक दर्जन सामने जाते हैं। व्यवस्था में जंग लग चुकी है। इसे दुरूस्त करने को पहले कोई आवाज नहीं उठती थी सब ठीक था। जब उठने लगीं तो सियासत को आफत नजर आने लगी। पता नहीं कब सियासतदां ये समझेंगे कि देश पहले है, जनता पहले है, नैतिकता पहले है? वो नहीं जिसकी वजह से आज ये देश आज इस मुहाने पर खड़ा है। अब तो जागो मोहन प्यारे। कर दो देश के वारे-न्यारे। धो डालो पाप सारे। यही पुकार रहे हैं हारे-मारे-बेचारे।
 जिंदगी दिखाई देती है,कब्रों में या दरगाहों में, मंदिर में या शमशानों में,
मिट्टी में दबी हुई या मिट्टी में मिली हुई,
पूजा की बेलों पर कांपती या घुटनों के बल झुकी हुई।