Sunday, July 15, 2012

बेटा अगर गलती करे तो बाप की ठुकाई करो



 देशपाल सिंह पंवार  

पुलिस व प्रशासनिक अफसरों को उठाईगिरों जय-वीरू जैसी दोस्ती की मिसाल देने के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री  ने भरी भीड़ में बेटों के गुनाहों के लिए बाप के खून को जिम्मेदार ठहराया


बेटा अगर गलती करे तो बेटे की नहीं बाप की ठुकाई करो। गलती बाप की है। उसके संस्कारों की है। गुण तो बाप से ही आता है। औलाद दादा और बाप से ही तो सारे गुण लेती है। मैं कहता हूं कि बेटा यदि चोरी करता है, डकैती डालता है, बलात्कार करता है तो उसमें बेटे का क्या दोष? सारा गुनाह बाप का है। हमनें ही औलादों को ऐसा बनाया है। जैसा हमारा खून है, जैसा हमारा डीएनए है, जैसी हमारी सोच है, वैसा ही बेटा बनता है। अपराधी बेटा नहीं बाप होता है। हाल ही में एसपी व कलेक्टर को जय व वीरू से सबक लेने और उनकी राह पर चलने की बात कहने वाले छत्तीसढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने शुक्रवार को ये बातें उस समय कही जब राजधानी रायपुर में देश का 43 वां और छत्तीसगढ़ का पहला साइंस सेंटर खुल रहा था। तमाम नेता,अफसर और वैज्ञानिक तथा जनता वहां मौजूद थी। छत्तीसगढ़ इस साइंस सेंटर से कितना सीखेगा ये तो वक्त बताएगा लेकिन रमन सिंह खुद डाक्टर भी हैं और डीएनए या जीन्स को एक आम आदमी से बेहतर समझते हैं। इसी वजह से उन्होंने सारे बाप को बेटे की करनी के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। पर जो बात उन्होंने कही वो विज्ञान की कम और संस्कार की ज्यादा थीं। यानि करे कोई और भरे बाप-दादा। मुख्यमंत्री के इस अप्रत्यक्ष निर्देश के बाद पुलिस बाप-दादा का क्या करेगी ये तो पहले से ही अंदेश सबको है। पर कम से कम सारी जिंदगी हड्डियां तुड़वाकर किसी तरह घर चलाने वाला बाप तो पहले ही नालायक औलाद का खामियाजा भोगता रहता है। इस तरह के बयानों से तो उसके पास जीने का भी हक नहीं रहा।


सुराज को नमन: अनोखा कथन- बेजोड़ चमन- बस बाप का दमन


हिंदुस्तान ऐतिहासिक परंपराओं का देश है। हमारा इतिहास ऐसे किस्सों से भरा पड़ा है जहां पिता और गुरू के आदेश पर बेटे राजपाट तक त्याग देते थे। हां विदेशी धरती से आने वाली राजाओं की फौज यानि मुगल सल्तनत के किस्से भी ऐसे थे कि बेटा ही बाप और भाई को मारकर ताज हथिया लेता था। यानि दोनों ही पहलू से इतिहास अटा पड़ा है। पुरातन कहावत भी है कि जिसकी औलाद गलत निकल जाए तो वो जीते-जी मर जाता है। यानि हर मां-बाप की असली कमाई औलाद है। औलाद सही तो सब सही वरना  मुंह दिखाने लायक नहीं रहते कहीं। रजवाड़ों के दौर में अमूमन ऐसा होता था कि औलाद की गलती तो बाप को भी अंदर कर दो। हां तब भी एक बात तो जरूर कही जाती थी कि जैसी करनी-वैसी भरनी। पर तब भी करे कोई और भरे कोई को गलत माना जाता था और आज भी ये रीत बदली नहीं है। खैर रजवाड़े तो अब रहे नहीं। लोकतंत्र है। अपने कायदे-कानून हैं। कानून कहता है कि जिसने गलती की है सजा उसे ही मिले यानि अगर बेटे ने की है तो केवल बेटे को। कानून ये भी कहता है और मानता है कि भले ही कोई दोषी बच जाए लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। कानून तो बहुत सारे हैं लेकिन हर ताकतवर ने कानून की अलग-अलग व्याख्या कर ली है। गरीब कानून को अंधा तक कहने से नहीं चूकते तो अमीर और खासकर राजनेता कानून को अपने हिसाब से चलाने और हांकने की कोशिश तब तक जरूर करते हैं जब तक की समय सही होता है, या कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ती सारी दुनिया नहीं देखती। सारे देश में यही हो रहा है तो फिर छत्तीसगढ़ अलहदा कैसे रह सकता है? चाल, चरित्र और चेहरे वाली पार्टी का सुराज है। कानून भले ही बेटे के दोष के लिए बेटे को ही सजा देने की बात करता हो लेकिन सुराज के राजा यानि मुख्यमंत्री रमन सिंह आजकल अपना ही कानून बना रहे हैं और जनता को सिखा भी रहे हैं। अब वो कह रहे हैं कि अगर बेटे का दोष हो तो बाप को ठोको।  वैसे सौम्य चेहरे के स्वामी रमन सिंह हमेशा दायरे में और गैरविवादित बयानों को लेकर जाने जाते रहे हैं परंतु आजकल हाव-भाव काफी आक्रामक और बयान काफी विवादित नजर आ रहे हैं। संघ कहता है कि भारत माता सबसे ऊपर है। वीर सावरकर और सरदार पटेल जैसी हस्तियों का अनुसरण करो। भाजपा भी कहती है कि भगवान राम के आदशोँ पर चलो लेकिन रमन सिंह की थ्योरी अलग ही राह पर जा रही है। आई ए एस व आईपीएस अफसरों को वो कहते हैं कि फिल्म शोले के जय और वीरू की तरह दोस्ती की मिसाल कायम करो। भगवान कृष्ण और सुदामा की दोस्ती या फिर अटल बिहारी वाजपेयी या एल के आडवाणी या फिर अन्य पार्टी के आदर्श चेहरों की मिसाल वो नहीं देते। उन्हें दोस्ती की मिसाल देने के लिए असली चरित्र नहीं मिलते । मिलते हैं तो केवल नकली और वो भी दो उठाईगिरे। जो जेब काटने से लेकर ऐसा कोई गलत काम नहीं जो फिल्म में ना किया हो। क्या लाजवाब मिसाल थी? संस्कारों की दुहाई देने वालों के क्या यही संस्कार हैं? क्या यही भगवान राम की राह पर चलने वाली पार्टी की नीति है? रमन सिंह की उस नसीहत और हिदायत के बाद अफसरशाही चाहे तो  उन दो लफंगों जय-वीरू की तरह आशिकी भी कर सकती है? अब जय-वीरू अगर सुराज के आदर्श हैं तो बसंती का भी जरूर कहीं ना कहीं कोई अता-पता सुराज को जरूर होगा? शायद अफसरशाही को बता भी दिया गया होगा। क्या ताजा बयान इस बात का संकेत नहीं कि सुराज में अब सारे पिताओं की खैर नहीं? अरसे से छत्तीसगढ़ पुलिस को बेकार में मानवाधिकार वादी कोसते आ रहे थे कि वो गलती कोई करता है और सजा सारे घरवालों को दे देती है। ये तो अब पता चला कि जहां मुख्यमंत्री इस तरह के कानून को मानते हों तो फिर वहां की पुलिस को रोकने-टोकने व बोलने वाला कौन है? इसमें कोई दो राय नहीं कि परिवार के संस्कार और बाप-दादा के जीन्स बच्चों में आते हैं। लेकिन इस बात की कोई गारंटी दे सकता है कि जैसा बाप होगा-दादा होगा, वैसा ही बेटा और पोता होगा?क्या गरीब का बेटा आईएएस नहीं बन सकता? अमीर का बेटा कातिल नहीं हो सकता? डाक्टर का बेटा मुख्यमंत्री नहीं बन सकता? गांव में भैंस चराने वाला लालू मुख्यमंत्री नहीं बन सकता और फिर घोटाले नहीं कर सकता? उपलब्धियां मेहनत से आती है और संस्कार से तहजीब। पर तहजीब के लिए केवल घर के संस्कार ही काफी नहीं होते। आज के दौर में जिस तरह आर्थिक उदारवाद के नाम पर चकाचौंध फैली है। समाज में खुलापन आया है। टीवी व मोबाइल अपसंस्कृति फैली है। बच्चे मनमर्जी करने लगे हैं। समाज, वक्त और माहौल भी इसके लिए उतना ही दोषी है। बंदिशें लगाओ तो बाप कसाई और तालिबानी। ना लगाओ तो आफत। अगर हमारे बेटी-बेटे प्रेम विवाह कर लेते हैं तो क्या इसे भी गलत ठहराया जाए और मां-बाप को दोषी माना जाएगा? लाख टके का सवाल ये भी है कि जहां सरकारें अपनी कौम को खाना देने से ज्यादा शराबी बनाने पर तुली हैं वहां केवल मां-बाप को ही तहजीब सिखाने या बच्चों को डकैत, बलात्कारी और चोर बनाने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता? हां मां-बाप की जिम्मेदारी बेहतरीन शिक्षा व परवरिश देना होता है लेकिन मुख्यमंत्री तो पूरे प्रदेश के माई-बाप होते हैं। तो हर गलती के लिए आखिर में कौन जिम्मेदार हुआ? चलो मान लिया कि मुख्यमंत्री सही कह रहे हैं तो फिर इसका जवाब भी उन्हें ही देना चाहिए कि कोई भी सरकार, मंत्री या अफसर गलती करता है, जनता को शराबी बनाता है, गरीब रखता है, किसानों का हक छीनता है,कारोबारियों के लिए जल, जंगल, जमीन सब लुटा देता है तो इस तरह की हजारों गलतियों और अपराधों के लिए किसे और कौनसी सजा कब दी जाएगी? अगर कोई बिरादरी अपने समाज की बेहतरी के लिए लड़कियों और महिलाओं तथा बच्चों पर अंकुश लगाती है तो उसे तालिबानी समाज कहा जाता है लेकिन अगर मुख्यमंत्री ये कहें कि बेटा बलात्कारी हो तो बाप को ठोको, ये कहां तक जायज है? क्या लोकतंत्र में किसी मुख्यमंत्री का ये बयान तालिबानी नहीं? क्या इसे जायज माना जा सकता है? क्या अदालतों की अब जरूरत नहीं रह गई?  मुद्दा बेहद गंभीर और संवेदनशील है। इस पर मकसद किसी की आलोचना करना नहीं बल्कि बहस करना है ताकि परिवार बेहतर हो। परिवार बेहतर तो समाज बेहतर, प्रदेश बेहतर और हमारा देश बेहतर। हम सब गर्व से कह सकें कि मेरा भारत महान। (EDITOR JANDAKHAL HINDI DAILY)
तो शादी में जीन्स का मिलान होगा
अगर रमन सिंह की चली तो यकीनन आने वाले समय में भारत में शादी-विवाह के लिए कुंडलियां नहीं मिलाई जाएंगी बल्कि लोग पहले जीन्स का टेस्ट कराएंगे और अगर मिले तो ठीक वरना राम-राम। भारत में शादी-विवाह कैसे होते हैं सब जानते हैं। यहां चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक लेकिन कम से कम बच्चों की शादी के वक्त वो कुंडली जरूर उठाए घूमता है कम से कम हिंदू समाज में। लेकिन मानना पड़ेगा कि मुख्यमंत्री की सोच पूरी वैज्ञानिक है। क्योंकि अमूमन वैज्ञानिक ही इस बात को कहते हैं कि आनुवंशिकी दोष बढ़ते जा रहे हैं लिहाजा युवाओं को इस राह पर जाना चाहिए कि वो पहले आनुवंशिक कोड़ को जाने और जीवन साथी का भी पहचाने तब जाकर हाथ में हाथ लें वरना तबाही तय है। इसके पीछे वैज्ञानिक यही मानते हैं कि पति-पत्नी के बच्चे निरोगी रहेंगे। रमन सिंह भी डाक्टर हैं लिहाजा वो भी यही कहते हैं कि हर घर में ऐशवर्या राय और अभिषेक पैदा हो सकते हैं। अब लाख टके का सवाल ये भी पैदा होता है कि जिस घर में दौलत के भंडार हों वहां तो कोई भी बच्चा स्वस्थ रह सकता है लेकिन जिस राज्य की आधी आबादी महागरीब हो वहां कैसे इस मामले में सोचा जाए? हो सकता है कि सुराज की सरकार अगली बार कारोबारियों की तरह इस स्टेट के हर वाशिंदे को भी इस लायक बना दे कि वो जीन्स टेस्ट के बाद ही बच्चों को जन्म दे। फिलहाल तो सुराज में इस आबादी को दो वक्त की रोटी और दो गोली दवा तक के लाले हैं। जो जैसा पैदा हो जाए सब भगवान की मर्जी।

तालिबानी संसार: प्यार पर वार?


पश्चिम उत्तर प्रदेश का बागपत जिला और उसका मुस्लिम बहुल गांव असारा आजकल बेहद चर्चा में है। गांव की महिलाओं और लड़कियों से आए दिन की छेड़छाड़ के बाद बिरादरी ने फैसला किया कि 40 साल से कम की कोई महिला और लड़की ना तो बाजार जाएगी और ना ही मोबाइल पर बात करेगी। सिर पर कपड़ा होगा. इतना ही नहीं गांव में प्रेम विवाह पर भी रोक लगा दी गई है। साथ ही दहेज पर पूरी तरह पाबंदी। इधर पंचायत ने ये फैसला किया और उधर मीडिया ने इसे फिर वैसी ही हवा दे दी जैसी वो इस सारे इलाके और हरियाणा के बारे में फैलाता आ रहा है। यानि पूरा इलाका हिटलर और यहां की कल्चर तालिबानी। फिर खाप को लेकर टी वी चैनलों पर हमेशा की तरह बिना सोचे-समझे वही पुराना रिकाडऱ् बज रहा है। वही घिसे-पिटे चेहरे, लोकतंत्र के नाम पर वही घिसी-पिटी बातें गूंज रही हैं। मानवाधिकारों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। आजकल केंद्र भी मीडिया की ही आंख से चलता है। लिहाजा बिना तहकीकात किए पी चिदबंरम भी आग में कूद पड़े हैं। उनकी नजर में लोकतंत्र में खाप पंचायतों के ऐेसे फरमानों की कोई जगह नहीं है। ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की वो अखिलेश सरकार से उम्मीद कर रहे हैं। हैरानी की बात है कि एक तरफ केंद्र पंचायती राज की दुहाई देता है और दूसरी ओर पंचायत की ही बात मानने को तैयार नहीं। उल्टे उकसाया जा रहा है। यूपी के कैबिनेट मंत्री आजम खान पी सी को टका सा जवाब दे रहे हैं कि इसमें गलत क्या है? सबको अपनी बात कहने का हक है। ये फरमान नहीं अपने समाज की बेहतरी के लिए बड़ों की राय है। रहा सवाल मोबाइल पर बैन का तो इस पर भी आजम खान ने टका सा जवाब दिया है कि वो किसी मोबाइल कंपनी के एजेंट नहीं हैं। पंचायत ने सोच समझकर ही फैसला लिया होगा। मौलाना भी कह रहे हैं कि इसका इस्लाम से कोई वास्ता नहीं। केवल समाज सुधार की बातें हैं। यानि टकराव गांव में भले ही ना हो, बिरादरी में भले ही ना हो लेकिन चैनलों के स्टूडियों और सरकारों के बीच जरूर है। लाख टके का सवाल यही है कि आखिर सरकारें जमीनी हकीकत को क्यों नहीं समझती? गांवों को दिल्ली बनाने पर क्यों तुली हैं? सवाल ये भी है कि क्या दिल्ली आदर्श है?  मानवाधिकारवाद की दुहाई के सहारे आर्थिक उदारवाद और सामाजिक सुधारवाद की चकाचौंध से पतन के कगार पर खड़े समाज को बचाने की जरूरत है या उसे नेस्तानाबूद करने की? क्या मीडिया को इसका आंकलन या पोस्टमार्टम नहीं करना चाहिए कि आखिर ये सब क्यों हो रहा है? कड़वा सच ये भी है कि मीडिया ऐसा जज बन गया है जो बिना तह तक जाए केवल सुनी-सुनाई बातों पर फैसला सुना देता है। फैसला एक ही होता है-तालिबानी संसार: प्यार पर वार।

देशपाल सिंह पंवार

दिन में ही जुगनूओं को पकडऩे की जिद करें,बच्चे हमारे दौर के बहुत चालाक हो गए।

देश में लोकराज है। अधिकारों का साज है। सबको नाज है। होना भी चाहिए। पर ये कौन सा काज है? क्यों लोकलाज नासाज है? क्यों संस्कारों पर गाज है? क्यों कल को मिटाता आज है? क्यों यमराज का राज है? लोकतंत्र में आजादी के ये कौन से मायने निकाले जा रहे हैं? सावन की फुहार के बजाय क्यों गरम बयार को पंखे झुलाए जा रहे हैं? समाज की तपिश में हाथ तापने की गलत सोच पर भी क्यों सीने फु लाए जा रहे हैं? आखिर ये कौन सा संसार और कैसा प्यार? सारी हदें पार। शर्मो हया तार-तार। संस्कारों की हार। रिश्तों पर वार। अपने बेजार। मानवता शर्मसार। ये कहां आ गए हैं हम? हक के नाम पर बड़ों की मनमर्जी। गांव में प्यार व शादी की जिद करने वाले युवाओं की खुदगर्जी। ना पालक धर्म की राह पर जाते नजर आ रहे हैं। ना ही मीडिया असली कर्म की कमाई खा रहा है। नेता रूपी चालक से ना पहले कोई आस थी। ना आज है। वे कल भी भ्रम में थे-आज ज्यादा हैं। कल क्या होगा-अंदाजा लगाया जा सकता है। बापू को नमन और चमन का पतन-यही आज के समाज का कथन है। ऐसे में सामाजिक ताने-बाने के संकरे होते रास्ते कितनी देर और कितनी दूर साथ लेकर चल पाएंगे,अब यह सवाल हर समय मथ रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि लोकतंत्र में सबको तमाम हक हैं। प्यार पर भी बंदिशें नहीं हैं। तय उम्र के बाद शादी पर भी रोक नहीं है लेकिन इस हक का मतलब हद पार करना नहीं है। असली दिक्कत यही है कि हक की किताब तो बांच ली गई पर हद को ना तो जानने की कोशिश की गई, ना समझने की। मानना तो दूर की बात है। जहां-जहां हद पर हक का पलड़ा झुका वहां यही हुआ जो आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस गांव असारा में हो रहा है। हरियाणा में हो रहा है। असम में हो रहा है। सारे देश में हो रहा है। लाख टके का सवाल यही है कि कंधे पर लैपटाप, कान पर मोबाईल, आंख पर चश्मा लगाकर चलने वाली ये कौम क्या प्यार की कहानी का सारा फि ल्माकंन दिल व घर की चाहरदीवारी से बाहर सड़क पर करना चाहती है? संविधान की किस धारा में ये अधिकार मिला है कि लिहाफ  सड़क पर बिछाया जाएगा? मां-बाप की इज्जत को सरेआम उछाला जाएगा? ये देश गांवों में बसता है। वहां हर लड़की को बहन माना जाता है तो क्या बहन को बीवी बनाया जाएगा? समाज और संविधान की किस धारा में लिखा है और कहां से ये हक मिला है कि बालक पल में अपने पालक को ही नालायक का दर्जा दे डालें? आजादी के ये मायने तो नहीं थे। सवाल यह भी है कि संविधान की किस धारा में किसी भी शख्स, किसी भी गौत्र, किसी भी गांव या किसी भी खाप को खून बहाने  व तुगलकी फरमान सुनाने की आजादी मिली है? मूंछ के सवाल पर समाज और कानून को हलाल नहीं किया जा सकता।       
  वैसे ये एक सामाजिक समस्या है, इसे ना तो कोई गौत्र,ना कोई खाप, ना कोई राजनीतिक दल, ना कानून की कोई धारा इस हांके से हांक सकती जो आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश व हरियाणा के हर गांव-गली और कूंचों में लगाया जा रहा है। यह एक संवेदनशील मामला है। नेतागिरी जितना दूर रहेगी-उतना ही अच्छा। मानवाधिकारों का डंका पीटने वालों को भी तह में जाना होगा। टी वी चैनलों पर हल्ले से ये ठीक नहीं होगा। सख्ती से इसे दबाया नहीं जा सकता। किसी सजा से भी इसका समाधान नहीं निकलने वाला। घर-गांव, गौत्र और खाप वालों को भी निष्कासन से आगे की हद नहीं लांघनी चाहिए। असारा में मुस्लिम बिरादरी ने जो फैसले किए गए उनके पीछे समाज को बचाने का तर्क दिया जा सकता है लेकिन कानून को हाथ में लेने और किसी को मारने-पीटने का अधिकार ना किसी शख्स को है, ना किसी समाज को है, ना किसी गौत्र को है, ना किसी खाप और सर्वखाप को है। सबको ये समझने की भी जरूरत है कि ऐसे मामले क्यों होते हैं? जिस असारा गांव का ये मामला है। इस गांव को मैं नजदीक से जानता हूं क्योंकि इसी गंाव के मुस्लिम इंटर कालेज से मैंने हाईस्कूल की शिक्षा ग्रहण की थी। ज्यादातर आबादी मुस्लिम जाटों की है। वैसे हर जात का यहां बंदा है। यहां  कोई खून-खराबा या दंगा फसाद कभी हुआ भी नहीं। पर बरसों से बाजार जाने वाली लड़कियों और महिलाओं पर छींटाकसी और मोबाइल कल्चर ने जिस तरह आए दिन झगड़ों व खून-खराबे की स्थिति पैदा की उसी वजह से शायद बिरादरी ने ये फैसला किया। महिलाओं का बाहर निकलना बैन नहीं केवल बाजार जाना। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये थोड़ा सख्त फैसला है। इसकी सब आलोचना कर रहे हैं लेकिन कोई ये क्यों नहीं देखता और इस बात की तारीफ क्यों नहीं करता कि वहां दहेज पर पूरी तरह रोक लगाई गई है। क्या बेटियों का दुकानों पर जाना सही है? क्या गांवों में प्रेम विवाह जायज हैं? क्या सिर पर कपड़ा रखकर चलना तालिबानी फरमान है? क्या ये तहजीब नहीं है? हर मसले पर बहस होनी चाहिए लेकिन तब जब आप दिल्ली और असारा का फर्क समझते हों इसके बाद चैनलों को जजी करनी चाहिए।
ऐसा नहीं है कि ये मसला केवल मुस्लिम गांव का है। मीडिया की नजरों में सबसे ज्यादा तालिबानी तो जाट समुदाय है।  अगर बात केवल जाटों की ही की जाए तो कोई एक-दो गौत्र हों तो ऐसी दिक्कतें शायद ही पैदा हों लेकिन हरियाणा, राजस्थान, यूपी और देश के हिस्सों में जाटों के चार वंश और 2700 से ज्यादा गौत्र हैं। दिन-रात का साथ है। ऐसे में गांव स्तर पर संस्कार विहीन बच्चों से गलती हो जाती हैं, कानून की नजर में गांव में प्रेम विवाह चाहे जायज ठहराए जा सकते हों लेकिन समाज और नैतिकता की कसौटी पर इसे सही कैसे ठहराया जा सकता है?  स्कूल-कालेज में पढ़ते समय गौत्र जैसी बातें युवा पीढ़ी को बेमायने नजर आने लगती हैं। प्रेमिका की कसौटी पर खरा उतरने के वास्ते सारे संस्कार बौने लगने लगते हैं। क्या ये जायज है? ये एक मनोवैज्ञानिक पहलू और सामाजिक बहस का संवेदनशील मुद्दा है जिसे चंद शब्दों से ना तो बताया जा सकता और ना ही कोई रास्ता निकाला जा सकता है।
जहां तक गौत्र का सवाल है तो यह एक संस्कृत टर्म है। वैदिक राह पर चलने वालों ने इसे पहचान तथा सामाजिक मान-सम्मान कायम रखने के वास्ते शुरू किया था। महर्षि पाणिणी ने लिखा था-उपत्यं प्रौत्रं प्रभर्ती गौत्रम। पहले किसी खास इंसान, जगह,भाषा और ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर गौत्र बनते गए। जब जहां कोई महान शख्स हुआ उसके नाम पर गौत्र बन गया। रजवाड़ों के जाने के बाद वंश व गौत्र बढऩे का ये सिलसिला थमा है। हां यह जरूर है कि जैसे जाति और वंश नहीं बदल सकते उसी तरह गौत्र भी नहीं बदल सकते। एक वंश में एक से ज्यादा गौत्र हो सकते हैं लेकिन एक गौत्र में एक से ज्यादा वंश नहीं हो सकते। जैसे चौहान वंश में 116 गौत्र हैं। जिस समय ये परंपरा शुरू हुई थी तो उसी समय ये बंदिशें लागू हो गई थीं कि समान गौत्र में शादी नहीं हो सकती। इसके पीछे सामाजिक और वैज्ञानिक कारण थे। वंश की सेहत और नैतिक मूल्यों की रक्षा के तर्क थे। मानव धर्मशास्त्र के चैप्टर-3 और श्लोक 5 में भी कहा गया है-अस पिण्डा च या मातुर गौत्रा च या पितु:, सा प्रशस्ता द्विजातीनां दार,कर्माणि मैथुने। यानि बाप के गौत्र और मां की छह पीढिय़ों के गौत्र में लड़की की शादी जायज नहीं। हिंदुओं में शादी का जो परंपरागत प्रावधान है वो भी यही कहता है कि चार गौत्र का खास ख्याल रखो- यानि मां, पिता, पिता की मां और मां की मां (नानी) के गौत्र में शादी वर्जित है। अब ये घटकर केवल मां और पिता के गौत्र तक सीमित रह गया है। पिछले दिनों हरियाणा में जिस मामले पर हल्ला हुआ था वह इसी हद के उल्लंघन का नतीजा था।
 सब जानते हैं कि भारत गांवों में बसता है। सरकार भी एक तरफ पंचायतों को मजबूत करना चाहती है लेकिन हैरत की बात यही है कि वो हर पंचायत को दिल्ली के चश्मे से देखने की कोशिश करती है। आखिर वो ये क्यों नहीं समझती कि गांवों का सारा ताना-बाना आज इसी वजह से मजबूत है क्योंकि वहां हर लड़की बहन और हर लड़का भाई समझा और माना जाता है, चाहे वो किसी भी जात का क्यों ना हो? असारा मुस्लिम बहुल गांव है। मुस्लिम समुदाय में शादी-विवाह में फिर भी काफी छूट हैं। अगर ऐसे फैसले किए गए हैं तो जाहिर सी बात है कि पानी सिर के पार हो गया है। अब इस पर इतना हल्ला क्यों? वहां किसी को मारा नहीं गया-पीटा नहीं गया। हां छेडख़ानी वालों को भी सजा मिलनी चाहिए थी। हां अगर बाप ने बेटों-बेटियों को मोबाइल से मना कर दिया तो क्या पी सी अब सरकारी खजाने से देंगे? वो भाई-बहन की शादी कराएंगे? जब तक मसला कानून का नहीं होता तब तक टांग अड़ाने की जरूरत क्या है? स्थिति तो ऐसी ही बनती जा रही है।
अन्य समुदायों के बाकी गांवों में भी दिन-रात ताऊ और चाचा कहने वालों की बेटियों को क्या बहू बनाया जा सकता है? ऐसा होना सामाजिक और नैतिक मूल्यों का पतन नही है? पर ऐसा हो रहा है। जब-जब इस हद को लांघा जाएगा तो जाहिर सी बात है कि समाज में उथल-पुथल होगी और अमूमन कड़वे नतीजे ही सामने आएंगे। जिस प्यार व शादी से अगर रिश्ते टूटते हों, समाज बिखरता हो, परिवार बेइज्जत होता हो, खून बहता हो तो उसे प्यार कैसे माना जा सकता है? प्यार तो बलिदान मांगता है। यहां तो वो खून मांगता है। जाटों में अमूमन जर, जोरू और जमीन के ही विवाद होते हैं। प्यार व शादी के विवाद कई बार गौत्र में नहीं सुलझ पाते। गांव पंचायतों में नहीं निपट पाते। न्याय के वास्ते इससे ऊपर खाप हैं और फिर आखिरी सर्व खाप। यानि हरियाणा की सर्व खाप। ऐसे मामलों में ज्यादातर हुक्का-पानी बंद और गांव से निष्कासन के ही फैसले ही आते हैं। खाप का भी इतिहास बेहद पुराना है। 500 बीसीई से ही इसका जिक्र है। आन-बान-शान के लिए मर मिटने का। अतीत से अब तक इसे सामाजिक प्रशासन का दर्जा मिला हुआ है। कुछ गांवों को मिलकर खाप बनती हैं। जैसे 84 गांव की खाप। एक गौत्र एक ही खाप में रह सकता है। पंचायतें जब मामले नहीं निपटा पातीं तो वे खाप में जाते हैं और जब दो खाप में पैंच फं स जाते हैं तो फिर हरियाणा की सर्व खाप तय करती है। इसके सारे फैसले माने जाते हैं। कई बार उन्हें कानून की अदालतों में चुनौती दे दी जाती है। लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता और इतिहास गवाह है कि इस व्यवस्था से हमलावरों के खिलाफ  तमाम जंग लड़ी और जीती गई तथा सामाजिक झगड़े सर्वखाप स्तर पर निपटते रहे। चाहे वो 507 एडी में मुल्तान में हंस के खिलाफ  जंग हो, मोहम्मद गौरी के खिलाफ  तारोरी की जंग हो या अलाउद्दीन खिलजी के खिलाफ  हिंडन और काली नदी की जंग हो या फिर 1398 में तैमुर के खिलाफ जंग हो सबमें खाप व सर्वखाप ने निर्णायक रोल अदा किया। इतिहास बेहद लंबा चौड़ा है। चंद शब्दों में समेटना आसान नहीं पर सच यही है कि सर्वखाप के सामने तब दुश्मन होते थे अब अपने हैं। चाहे जितना समय बदल गया हो खाप और सर्व खाप की महत्ता इस समाज में आज भी उतनी ही है। जब तक हर गांव दिल्ली या मुंबई नहीं बन जाता इनसे छेड़छाड़ का नतीजा घातक ही होगा।
 इस व्यवस्था को बनाने का श्रेय आर्यसमाज को ही जाता है। जिसकी संस्कारों की मजबूत नींव पर यह बुलंद इमारत खड़ी हुई थी। जिसे हिलाने की कोशिशें होती रहती हैं। युवा पीढ़ी को यह तय करना ही होगा कि क्या भाई -बहन और मां-बाप से बढ़कर भी प्यार है? यह भी तय हो जाना चाहिए कि क्या प्यार कौम, समाज और राज्य से भी बढ़कर है? इस युवा पीढ़ी को गौरवशाली इतिहास का एहसास कराना भी जरूरी है ताकि वो उस पर नाज करे। गाज गिराने वाला साज ना बजाए। प्यार करो पर हद में। हद से बाहर भद्द ही पिटेगी। एक और बात यह कोई लैला-मजनूं का किस्सा भी नहीं है कि मीडिया इसे फि ल्मी कहानी की तरज पर पेश करे। खासकर टीवी चैनल। इतिहास को पढ़े बिना,सामाजिक ढांचे को समझे बिना, गहराई में जाए बिना तालिबानी संसार-प्यार पर वार के ढोल बजाना जायज नहीं। सामाजिक बीमारी को लव स्टोरी बनाने की सोच सही नहीं। लोकतंत्र में मिले हक और देश के 21 वीं सदी में होने के पाठ मीडिया में बैठे लोगों को फि र पढ़ लेने चाहिए ताकि आग में घी के काम से वे और बदनाम ना हों। उनमें यह समझ जरूर होनी चाहिए कि हर धोतीधारी गंवार नहीं होता। हर जींस पहनने वाला देश व समाज की तरक्की का असली चेहरा और ठेकेदार नहीं होता। जिस देश की कल्चर और इतिहास की सारी दुनिया कायल हो,अपनाना चाहती हो, क्या उस देश में 500-700 रुपए की जींस से नैतिक मूल्यों का मूल्यांकन होगा? क्या इसी संस्कृति से देश की वर्तमान तस्वीर और कौम की सुनहरी तकदीर लिखी जाएगी? क्या टीवी चैनल पर बैठे मीडिया के साथी तालिबानी कल्चर को नहीं जानते? उस कल्चर में बिस्तर पर बहन के अलावा सब जायज है, यहां ठीक उल्टा है। फिर ये तालिबानी चेहरे कैसे हुए? जिस तरह पूरे देश में प्यार पर वार होते हैं तो फि र इस सारे देश को क्या तालिबानी कहा जाना वाजिब होगा? अगर ये साथी इतिहास पढ़े होते तो अफ गानिस्तान और तालिबान के साथ-साथ राजस्थान, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रिश्तों को जरूर समझ जाते। समझा पाते। हां गुवाहटी में एक लड़की के साथ 20 लड़कों का नंगा नाच तालिबानी है। पर जिस मीडिया की अधिकांश कौम को अपना इतिहास मालूम ना हो, उनके कथन से समाज में फैलते जहर का एहसास ना हो वो जो मरजी हों बोल भी सकते हैं, दिखा भी सकते हैं। सब जायज। इधर खबर आती है और वो जज की तरह फरमान सुनाना शुरु कर देते हैं। क्या ये तालिबानी रवैया नहीं है? देख लीजिए-अमूमन हर मामले में किसी गांव वाले से बार-बार लगातार ये पूछना कि वो बालिग है तो उसने गौत्र में लव मैरिज क्यों नहीं की? गौत्र से बड़ा कानून है। कानून से हक मिला है। यानि गौत्र जाए चूल्हें में पर लव मैरिज हो। अगर अब गौत्र की सीमा टूटी है, कल गांव की टूटेगी, परसों घर की। मीडिया ये कौन सा पाठ पढ़ा और सिखाता जा रहा है? ये हक का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है? अगर ये सब गलत है तो फिर इस देश में अब ना तो कोई धर्म रहना चाहिए और ना कोई जात। पर खुद जो मीडिया एक जात के चारों तरफ घूमता हो वो कैसे इसके खिलाफ आवाज उठा सकता है?
 सवाल यह भी उठता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की नजर में तरक्की के क्या मापदंड हैं? सड़कों पर समलैंगिक जोड़ों की भरमार, बहन को छोड़ किसी भी लड़की से प्यार,सारी शर्मो हया तार-तार, गुवाहाटी की सड़कों और बिहार के मंदिर में दलित महिला पर वार को अगर हम समाज व देश की तरक्की का परिचायक मान बैठे हैं तो फि र इस सवाल पर अब मंथन का समय आ गया है कि देश किस राह पर चलेगा? क्या ऐसी ही तरक्की हमें चाहिए ,जहां लाज ना हो? कड़वा सच यही है कि टीवी अपनी अप संस्कृति को देश के हर इंसान में तलाशने और फैलाने में जुटा है। जहां ये नजर नहीं आती, उसे जो चाहे नाम दे दो। लगे हाथ मीडिया को इस बात के जवाब तलाशने ही होंगे कि आखिर लव मैरिज ज्यादा विफ ल क्यों होती हैं? प्यार का ये बुखार टिकता क्यों नहीं है? पुरातन शादी की व्यवस्था की सफ लता अगर 90 फ ीसदी से ऊपर है तो लव मैरिज 50 फीसदी से नीचे क्यों है? इस क्यों की तह में जाओ-सबको समझाओ-फिर प्यार के बिगुल बजाओ। हमेशा की तरह हरियाणा व उत्तर प्रदेश के इस गांव असारा के मसले पर भी मीडिया ने नासमझी का ही परिचय दिया है। टीआरपी के लिए फि ल्मी परदे के हीरो दिखाने की बजाय अगर मीडिया असली हीरो ढंूढे, पैदा करे तो इस समाज की भी टीआरपी बढ़ेगी, उसकी भी साख बढ़ेगी। आदर्श चेहरों से खाली इस साधु-संतों की धरती पर फि र बहार की फ सल उगेगी। हक और हद की दोस्ती मजबूत होगी। ना प्यार पर वार होंगे, ना हम शर्मसार होंगे। मीडिया ये कर सकता है। अगर नहीं तो फिर आग में घी के रोल का फ टा ढोल उसकी पोल ही खोल रहा है। आवाज अगर नहीं सुनाई दे रही है तो यह उसकी बदकिस्मती। प्यार किया नहीं जाता हो जाता है पर यहां तो मीडिया और केंद्र दोनों कह रहे हैं कि करो। यानि सिर्फ प्यार से पेट भरो-बाकी किसी रिश्ते-नाते की जरूरत ही क्या है? किसी समाज की जरूरत ही क्या है? फिर केंद्र सारे देश को दिल्ली क्यों नहीं बना देता? खाप के तालिबानी फरमान का झंझट हमेशा के लिए ही खत्म हो जाए। वैसे कोई माने या ना माने ये तभी संभव है जब इस देश में केवल एक धर्म होगा और वो सिर्फ मानवता का होगा। ये होने वाला नहीं तो फिर जैसा चल रहा है उसे चलने दो जब तक की कोई कानून व्यवस्था का मसला खड़ा ना हो। केंद्र को ये भी नहीं भूलना चाहिए कि असारा मुस्लिम बाहुल्य गांव है। फिलहाल इसे इस्लामिक मसला नहीं माना जा रहा है लेकिन कल किसी तकरीर को झेलना आसान नहीं होगा। (लेखक जनदखल के संपादक हैं)

Saturday, August 27, 2011

सड़क अब ज्यादा कड़क



 
सरकार  तो झुकती है-झुकाने वाला  चाहिए,
लुटेरा नहीं, देश चलाने वाला नेता चाहिए।
हर घर, हर सूबे को अब अन्ना चाहिए।।

 


गांधी की टोपी अब अन्ना के सिर
देशपाल सिंह पंवार
फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है,
वातावरण सो रहा था अब आंख मलने लगा है।
 
जिस अन्ना को दिल्ली में जगह नहीं दी जा रही थी आज उसी अन्ना के लिए संसद में इतिहास का नया पन्ना लिखा गया। जो हमेशा याद रहेगा। खासकर इस पीढ़ी को जो अन्ना से पहले ना गांधीजी को समझती थी-जानती थी इस पर शक ज्यादा है। अब कम से कम वो समझ गई कि गांधी का अनुयाई अगर ऐसा है तो गांधी जी कैसे होंगे? अन्ना समर्थक और राजनीति की रोटियां पकाने वाले इसे अपनी जीत के रूप में देख रहे हैं, बोल रहे हैं। पर क्या वास्तव में ये जीत है? जीत है तो किस पर? करप्शन पर-वो तो मिटा नहीं। वक्त लगेगा। खुदा करे इस लोकपाल बिल के सहारे अन्ना का दावा सही साबित हो। करप्ट नेताओं पर-वो तो ज्यों के त्यों हैं। सांसदों पर-अगर वो गलत थे तो किसने चुने? उसी जनता ने जिसे अन्ना एंड पार्टी अपना समर्थक बता रही है। कांग्रेस पर-अगर हां तो क्या यही मकसद था? संसद पर-अगर उस पर जीत की बात की जाती है तो फिर बचता क्या है? संविधान पर-क्या यह मान लिया जाए? फिर लंोकतंत्र कहां रहा?
ये दिन किसी की जीत से ज्यादा गलती सुधारने के नाते याद किया जाना चाहिए। गलती-जिसकी वजह से करप्शन पनपा। गलती-जिसकी वजह से करप्शन कदापि कोई मुद्दा नहीं बना। गलती-जो कांग्रेस ने रामदेव के साथ की थी। गलती-जो सिब्बल एंड पार्टी ने मखौल बनाकर की। मनीष तिवारी एंड पार्टी ने की। गलती-जो कांग्रेस ने अन्ना को दिल्ली में अनशन की जगह ना देकर की। गलती - जो कांग्रेस ने अन्ना को तिहाड़ में डालकर की । गलती - जो मनमोहन सिंह और  उनकी टीम ने लगातार मास की फीलिंग को समझने में की। गलती-जो आखिर तक सत्ता के आगे पत्ता नहीं हिलता की सोच के सहारे लगातार करने की कोशिश की गई। गलतियां तो बहुत हुई पर गतानु गतिको लोक के इस देश में उन गलतियों की ओर ध्यान देने की कोई जरूरत महसूस नही करेगा। कम से कम फिलहाल। पर सत्ता की ओर से की गई सारी गलतियां समय रहते सुधर गई चाहे इसे कोई अपनी जीत माने या दूसरों की हार । इससे ज्यादा राहत की बात ये कि चाहत पूरी होती दिखाई दी। वरना जो हालात बनते जा रहे थे उसमें आजादी की दूसरी लड़ाई वास्तव में लड़ाई का अखाड़ा बनने की ओर अग्रसर होती नजर आ रही थी।
जीत हुई पर लोकतंत्र की। यह साबित हुआ कि अनशन के सहारे-जनबल के सहारे - गांधी के सहारे- शांति के सहारे अपनी मांगे मनवाई जा सकती है। ये लोकतंत्र की मजबूती का संकेत है। खैरियत है शांति से सब कुछ सही तरीके से निपट गया। जब पड़ौस और दुनिया में सारे देश जल रहे हों ऐसे में उनसे कहीं ज्यादा बड़े समुदाय ने अगर अहिंसा से अपनी बात मनवा ली है तो आज सारी दुनिया में हिंदुस्तान की धाक और ज्यादा जम गई होगी। सब हैरत में होंगे और अन्ना सही कहते थे कि सारी दुनिया सबक लेगी। ये जीत है ईमानदारी की-क्रेडिट चाहे जो ले पर हकीकत यही है कि सिर्फ अन्ना और सिर्फ अन्ना के नाम के सहारे ये सब कुछ हुआ। मकसद सही था। आदमी सही था। घर के बढ़े बुजुर्ग की छवि सबको नजर आ रही थी। आंदोलन के तरीकों की खामियों और खूबियों पर मंथन तो चलता ही रहेगा।
ये साबित हो गया कि कानून से चलन नहीं होता। चलन से कानून बनता है। ये साबित हो गया कि सच कदापि हारता नहीं है। ये साबित हो गया कि ईमानदारी का मोल है। मजबूत बोल है। ये साबित हो गया कि ब्रांड के पीछे पागल इस देश में असली और सबसे मजबूत ब्रांड जनता बनाती है। कोरपोरेट सेक्टर या मल्टीनेशनल कंपनियां और उनके करोड़ों लेने वाले गुरू नहीं। क्या इस सेक्टर के दिग्गजों को इससे सबक नहीं सीखना चाहिए? समझ जाना चाहिए कि लैपटाप से नहीं जमीन से ब्रांड बनते हैं।  आज सबसे बड़ा ब्रांड अन्ना हैं। बशर्ते कि उनकी सलाहकार समिति इस ब्रांड की वैल्यू को आगे दांव पर ना लगाए क्योंकि उस तिकड़ी में सारे बेहद महत्वाकांक्षी हैं। वो सब अन्ना नहीं हैं ना सोच से और ना व्यवहार से। इसे जीत मानकर वो मुगालता पाल सकते हैं। ये अन्ना जानते हैं-जानती तो जनता तक है पर वो यहां तिकड़ी के कारण नहीं,अन्ना के कारण जुटी। करप्शन का रोग जड़ से मिटाने के गुस्से और परेशानी के कारण जुटी। वो अन्ना के पीछे है। पीछे आज सारा देश है। गांधी जी के साथ तीन थे और यहां यही फिगर रही। पर उनमें तथा इनमें काफी अंतर है। वे ना बुरा बोलते थे। ना देखते थे। ना सुनते थे। पर अन्ना के तीनों बोलते हैं, देखते हैं, सुनते हैं। मनमर्जी की राह चुनते हैं।
आंदोलन के कुछ और पहलू बेहद दिलचस्प रहे। जिस गांधी टोपी को सब बिसरा चुके थे। सिर से हटा चुके थे। वो फिर आई और उन सिरों पर आई जिनकी जुल्फें हाथ लगाने से खराब हो जाया करती थी। तो क्या ये मान लिया जाए कि अब ये युवा पीढ़ी गांधी टोपी का महत्व समझ चुकी है। वरना हकीकत तो ये है कि वो 60 से ऊपर की जीती जागती पीढ़ी को ही कबूल करने को तैयार नहीं थी। पर उसकी समझ में अब आ गया होगा कि उम्रदराज आदमी कितना महत्वपूर्ण होता है। चाहे वो अनपढ़ ही क्यों ना हो। ईमानदारी और सदा आचरण क्या मायने   रखता है ? अब क्या अन्ना के सारे समर्थक ना करप्शन करेंगे और ना ही करप्शन होने देंगे?
ये जरूर है कि अब वो गांधी टोपी से ज्यादा अन्ना टोपी कहलाएगी। कितना अच्छा होता कि उस पर एक तरफ ये लिखा होता कि मैं अन्ना हूं और दूसरी तरफ होता-मैं गांधी हूं। ऐसा होता तो जो जमात दारू पीकर हंगामा करती नजर आई शायद दो बार सोचती। आज सारा देश अन्नामय है। उनके मुद्दे के साथ है। पर जरूरी है अन्नामय होना। हां जो तिकड़ी के बारे में कुछ बोल रहा है उसे अन्ना विरोधी बताया जा रहा है।  करप्टेड कहा जा रहा है। माना जा रहा है। जो उनकी बोली बोल रहा है, नारे लगा रहा है उसे ईमानदारी का तमगा दिया जा रहा है। यानि इधर उनका नाम लोगे और उधर आपको अच्छे चरित्र का प्रमाण मिल जाएगा। गंगा पाप धोती है। अन्ना का आंदोलन करप्शन के दाग धो डालता है। यही दर्शाने और उकसाने की लगातार कोशिश तिकड़ी ने की क्या ये सही है? अगर सारा देश अन्ना के पीछे है तो फिर करप्ट लोग कहां हैं? कौन हैं? इस सवाल का जवाब तो जल्दी ही तिकड़ी को देना होगा।
इस आंदोलन में तिरंगा इतना लहराया गया और सारे नियमों को तोड़कर लहराया गया कि शायद ही आजादी के बाद सारे 15 अगस्त व 26 जनवरी को लहराया होगा। हर हाथ में तिरंगा। मंच से किरण बेदी का तिरंगा लहराने का अंदाज क्या सही था पर क्राउड उनके पीछे थी तो कौन टोकता? हर युवा जो तिरंगा लहराता रहा, जो देशवासी देखता रहा क्या अब इस तिरंगे का हमेशा असली मोल समझेगा? ये हमारी आन-बान व शान का प्रतीक है। अपने मान का प्रतीक हमें इसे मान लेना चाहिए। खासकर समय रहते। ताकि तिरंगा हर देश के झंडे से ऊपर नजर आए। आज संसद में सबके निशाने पर सबसे ज्यादा मीडिया रहा। इसमें कोई दो राय नहीं कि मीडिया का काम है जो सामने घट रहा है उसे ज्यों का त्यों रखना। पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इंडियन मीडिया अरसे से जज का रोल प्ले करने का ढोल पीटने लगा है। यही सबसे बड़ी दिक्कत इस देश को आने वाले वक्त में उठानी पड़ेगी ये तय है। कोई माने या ना माने पर अन्ना के आंदोलन की सफलता में आधे से ज्यादा योगदान मीडिया का ही था। हर बात या बेबात को दिन हो या रात इस तरह से पेश किया गया कि जैसे सब कुछ हो गया है या कुछ नहीं होने वाला है। जिन बच्चों को ढंग से एबीसीडी नहीं आती उनसे अन्ना और करप्शन तथा सरकार के बारे में ऐसी बातें बुलवाई गई जो साफ झलक रहा था कि पहले पढ़ाई गईं होंगी। वैसे ये पहलू अलग है कि जो मीडिया राजनेताओं से ज्यादा आम आदमी को हीरो बनाने की कोशिश करेगा तो उससे सुनना तो पड़ेगा ही पर आज जरूरत इस बात की है कि मीडिया के मोल व रोल पर चर्चा और बहस संसद और संसद के बाहर ऐसी ही होनी चाहिए जैसी आज अन्ना के मसले पर हुई।
रामलीला मैदान ने फिर इतिहास रच दिया है। आखिर रामलीला मैदान के आंदोलन सफल क्यों होते हैं? क्या राम की लीला के कारण? जिनकी नजर राम का नाम सांप्रदायिकता से जोड़ देती है क्या उन्हें अब तक इसका ख्याल नहीं आया? या उनकी नजर में इस मैदान की कोई अहमियत नहीं। पूरे आंदोलन में सड़क व संसद की जद्दोजहद में ये बताने की जरूरत नहीं कि कौन आगे रहा और कौन पीछे? हां अब राजनेताओं को समझ जाना चाहिए कि जनता की सड़क का वो ख्याल रखें।  जनता से राजनीति की संवादहीनता, अकर्मण्यता और उपेक्षा से पैदा ये स्थिति क्या अब यहीं खत्म होगी? क्या आगे ऐसी स्थिति नहीं आएगी? क्या राजनेताओं और राजनीतिक दलों को इससे सबक नहीं सीखना चाहिए? क्या उन्हें ये एहसास अब तक नहीं हुआ है कि जनता अब अपनी पीड़ा दबाने को तैयार नहीं। राजनीति के धुरंधरों को अब ये समझ लेना चाहिए कि लच्छेदार बातों से जनता को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। ये दिन लद चुके हैं। अगर जनहित से  जुड़े मसलों का कोई जल्दी हल नहीं निकाला गया तो गांधी और अन्ना का ये देश गोली की बोली बोलने के लिए कम मशहूर नहीं है। सवाल ये और बड़ा है कि क्या अब हर बात मनवाने को इसी तरह का रास्ता नहीं अपनाया जाएगा?
फिलहाल अंत सही तो सब सही।  पर क्या इस आंदोलन का अंत हो गया है? शायद नहीं।  पता आगे चलेगा। खासकर जब ये बिल इधर से उधर लटकेगा। तब फिर ये अन्ना की आंख में फिर अटकेगा। हां समय की नजाकत ये कह रही है कि अब सोचना कांग्रेस को ज्यादा पड़ेगा क्योंकि करप्शन के इस इश्यू पर उसने ही सबसे ज्यादा खोया है। ताज्जुब है कि थिंक टैंक के मामले में इतनी खराब स्थिति में कांग्रेस कैसे पहुंच गई? अगर जनलोकपाल बिल को ज्यों का त्यों वो सदन में रख देती तो हर बात में शक करने वाला विपक्ष या कहा जाए बीजेपी उसे आसानी से पास होने देती? तब सारा ठींकरा उस पर और बाकी लालू यादव व मुलायम सिंह यादव जैसों पर फूटता। पर इसे ही कहते हैं सत्ता का घमंड। आ अन्ना मुझे मार। जब मार दिया तो तमाम बातें की जाएंगी। सोनिया की गैर मौजूदगी में कांग्रेस की नांव ऐसी डूबी कि अब उसे फिर से सत्ता की धारा में दौड़ाना आसान काम नहीं होगा। हर कोई मान रहा है कि कांग्रेस को इस राह पर ले जाने वाले कम से कम मास के नेता तो नहीं हैं।  अगर होते तो ऐसी सलाह ना देते। क्या कांग्रेस ऐसे सलाहकारों से पीछा छुड़ाएगी? सवाल तो सबसे ज्यादा मनमोहन सिंह की कप्तानी पर दागे जा रहे हैं। सब तरफ से। वो कम बोलते हैं पर   इस मसले पर वो कहीं पीएम नजर नहीं आए। यही इस संकट के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण रहा। लाख ईमानदार हों पर उनकी कप्तानी अब खतरे में है। सत्ता हनक से चलती है। ठसक से चलती है। दमक से चलती है। लचक से चलती है पर यहां तो कुछ दिखा ही नहीं। ज्यादा मौन से चरित्र की खूबियां गौण नजर आने लगती हैं पर ये बात मनमोहन सिंह को कौन समझाएगा? इतिहास को सिखाया नहीं जा सकता हां सीखा जरूर जा सकता है तो क्या खुद को परफेक्ट मानने वाले इस फैक्ट को मानेंगे? इस पर चलेंगे?
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को,
सब अपनी-अपनी हथेली जलाके बैठ गए।